सृजन के क्षण
Srijan ke kshan
रात मीठी चांदनी है,
मौन की चादर तनी है,
एक चेहरा? या कटोरा सोम मेरे हाथ में
दो नयन? या नखतवाले व्योरम मेरे हाथ में?
प्रकृति कोई कामिनी है?
या चमकती नागिनी है?
रूप- सागर कब किसी की चाह में मैले हुए?
ये सुवासित केश मेरी बांह पर फैले हुए:
ज्योुति में छाया बनी है,
देह से छाया घनी है,
वासना के ज्वानर उठ-उठ चंद्रमा तक खिंच रहे,
ओंठ पाकर ओंठ मदिरा सागरों में सिंच रहे;
सृष्टि तुमसे मांगनी है
क्योंिकि यह जीवन ऋणी है,
वह मचलती-सी नजर उन्माीद से नहला रही,
वह लिपटती बांह नस-नस आग से सहला रही,
प्यािर से छाया सनी है,
गर्भ से छाया धनी है,
दामिनी की कसमसाहट से जलद जैसे चिटकता…
रौंदता हर अंग प्रतिपल फूटकर आवेग बहता ।
एक मुझमें रागिनी है
जो कि तुमसे जागनी है।