मैं बनी मधुमास आली! -महादेवी वर्मा
Mein bani Mdhumas Aali – Mahadevi Verma
मैं बनी मधुमास आली!
आज मधुर विषाद की घिर करुण आई यामिनी,
बरस सुधि के इन्दु से छिटकी पुलक की चाँदनी
उमड़ आई री, दृगों में
सजनि, कालिन्दी निराली!
रजत स्वप्नों में उदित अपलक विरल तारावली,
जाग सुक-पिक ने अचानक मदिर पंचम तान लीं;
बह चली निश्वास की मृदु
वात मलय-निकुंज-वाली!
सजल रोमों में बिछे है पाँवड़े मधुस्नात से,
आज जीवन के निमिष भी दूत है अज्ञात से;
क्या न अब प्रिय की बजेगी
मुरलिका मधुराग वाली?
क्या जलने की रीत -महादेवी वर्मा
क्या जलने की रीति,
शलभ समझा, दीपक जाना।
घेरे हैं बंदी दीपक को,
ज्वाला की बेला,
दीन शलभ भी दीपशिखा से,
सिर धुन धुन खेला।
इसको क्षण संताप,
भोर उसको भी बुझ जाना।
इसके झुलसे पंख धूम की,
उसके रेख रही,
इसमें वह उन्माद, न उसमें
ज्वाला शेष रही।
जग इसको चिर तृप्त कहे,
या समझे पछताना।
प्रिय मेरा चिर दीप जिसे छू,
जल उठता जीवन,
दीपक का आलोक, शलभ
का भी इसमें क्रंदन।
युग युग जल निष्कंप,
इसे जलने का वर पाना।
धूम कहाँ विद्युत लहरों से,
हैं नि:श्वास भरा,
झंझा की कंपन देती,
चिर जागृति का पहरा।
जाना उज्ज्वल प्रात:
न यह काली निशि पहचाना।