ख़त्म-ए-शोर-ए-तूफ़ाँ – मजरूह सुल्तानपुरी
Khatam-e-shor-e-toofa – Majruh Sultanpuri
ख़त्म-ए-शोर-ए-तूफ़ाँ था दूर थी सियाही भी
दम के दम में अफ़साना थी मेरी तबाही भी
इल्तफ़ात समझूँ या बेरुख़ी कहूँ इस को
रह गई ख़लिश बन कर उसकी कमनिगाही भी
याद कर वो दिन जिस दिन तेरी सख़्तगीरी पर
अश्क भर के उठी थी मेरी बेगुनाही भी
शमा भी उजाला भी मैं ही अपनी महफ़िल का
मैं ही अपनी मंज़िल का राहबर भी राही भी
गुम्बदों से पलटी है अपनी ही सदा “मजरूह”
मस्जिदों में की जाके मैं ने दादख़्वाही भी