कोई आतिश दर-सुबू शोला-ब-जाम आ ही गया – मजरूह सुल्तानपुरी
Koi aatish dar-subu shola-b-jma aa hi gya – Majruh Sultanpuri
कोई आतिश दर-सुबू शोला-ब-जाम आ ही गया
आफ़ताब आ ही गया, माहे-तमाम आ ही गया
मोहतसिब! साक़ी की चश्मे-नीम-वा को क्या करूँ
मैकदे का दर खुला गर्दिश में जाम आ ही गया
इक सितमगर तू कि वजहे-सद ख़राबी तेरा दर्द
इक बलाकश मैं कि तेरा दर्द काम आ ही गया
हम-क़फ़स! सय्याद की रस्मे-ज़बां-बंदी की ख़ैर
बेज़बानों को भी अंदाज़े-कलाम आ ही गया
क्यों कहूंगा मैं किसी से तेरे ग़म की दास्ताँ
और अगर ए दोस्त लब पर तेरा नाम आ ही गया
आख़िरश, मजरूह के बे-रंग रोज़ो-शब में वो
सुबहे-आरिज़ पर लिये ज़ुल्फो की शाम आ ही गया