निगाह-ए-साक़ी-ए-नामहरबाँ – मजरूह सुल्तानपुरी
Nigah-e-saaki-e-naamharba – Majruh Sultanpuri
निगाह-ए-साक़ी-ए-नामहरबाँ ये क्या जाने
कि टूट जाते हैं ख़ुद दिल के साथ पैमाने
मिली जब उनसे नज़र बस रहा था एक जहाँ
हटी निगाह तो चारों तरफ़ थे वीराने
हयात लग़्ज़िशे-पैहम का नाम है साक़ी
लबों से जाम लगा भी सकूँ ख़ुदा जाने
वो तक रहे थे हमीं हँस के पी गए आँसू
वो सुन रहे थे हमीं कह सके न अफ़साने
ये आग और नहीं दिल की आग है नादाँ
चिराग़ हो के न हो जल बुझेंगे परवाने
फ़रेब-ए-साक़ी-ए-महफ़िल न पूछिये “मजरूह”
शराब एक है बदले हुए हैं पैमाने