Hindi Poem of Nander Sharma “  Yug aur me”,”युग और मैं” Complete Poem for Class 9, Class 10 and Class 12

युग और मैं

 Yug aur me

 

उजड़ रहीं अनगिनत बस्तियाँ, मन, मेरी ही बस्ती क्या!

धब्बों से मिट रहे देश जब, तो मेरी ही हस्ती क्या!

बरस रहे अंगार गगन से, धरती लपटें उगल रही,

निगल रही जब मौत सभी को, अपनी ही क्या जाय कही?

दुनिया भर की दुखद कथा है, मेरी ही क्या करुण कथा!

जाने कब तक घाव भरेंगे इस घायल मानवता के?

जाने कब तक सच्चे होंगे सपने सब की समता के?

सब दुनिया पर व्यथा पड़ी है, मेरी ही क्या बड़ी व्यथा!

छूट रहे हैं पुंछल तारे, होते रहते उल्कापात,

इस्पाती नभ पर लिखते जो जग के बुरे भाग्य की बात!

जहाँ सब कहीं बरबादी हो, वहाँ हमारी शादी क्या!

रीतबदल है त्योहारों में, घर फुकते दीवाली से,

फाग ख़ून की, है गुलाल भी लाल लहू की लाली से!

दुनिया भर में ख़ूनख़राबी, आँख लहू रोई तो क्या?

आग और लोहे को जिसने किया और रक्खा बस में,

सब जीवों के ऊपर वह मनु आज स्वयं उनके बस में!

आज धराशायी है मानव, गिरा नज़र से मैं—तो क्या!

बदल रहे सब नियम-क़ायदे, देखें दुनिया कब बदले!

मानव ने नवयुग माँगा है अपने लोहू के बदले!

बदले का बर्ताव न बदला, तुम बदले तो रोना क्या!

रक्त-स्वेद से सींच मनुज जो नई बेल था रहा उगा,

बड़े जतन वह बेल बढ़ी थी, लाल सितारा फूल लगा,

उस अंकुर पर घात लगी तो मेरे आघातों का क्या!

खौल रहे हैं सात समंदर, डूबी जाती है दुनिया;

ज्ञान थाह लेता था जिससे, ग़र्क हो रही वह गुनिया!

डूब रही हो सब दुनिया जब, मुझे डुबाता ग़म–तो क्या!

हाथ बने किसलिए? करेंगे भू पर मनुज स्वर्ग निर्माण!

बुद्धि हुई किसलिए? कि डाले मानव जग-जड़ता में प्राण!

आज हुआ सबका उलटा रुख़, मेरा उलटा पासा क्या!

मानव को ईश्वर बनना था, निखिल सृष्टि वश में लानी;

काम अधूरा छोड़, कर रहा आत्मघात मानव ज्ञानी!

सब झूठे हो गए निशाने, तुम मुझसे छूटे–तो क्या!

एक दूसरे का अभिभव कर, रचने एक नए भव को,

है संघर्षनिरत मानव अब, फूँक जगतगत वैभव को;

तहस-नहस हो रहा विश्व, तो मेरा अपना आपा क्या!

युग-परिवर्तन के इस युग का मूल्य चुकाना ही होगा,

उसका सच ईमान नहीं है, आज न जिसने दुख भोगा!

दुनिया की मधुबनी सूखती, मन, मेरा गुलदस्ता क्या!

ओ मेरी मनबसी कामना! अब मत रो, चुपकी हो जा!

ओ फूलों से सजी वासना! कुश के आसन पर सो जा!

टूट-फूट दुनिया कराहती, मेरे सुख-सपने ही क्या!

उजड़ रहीं अनगिनत बस्तियाँ, मन, मेरी ही बस्ती क्या!

 

 

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