आते ही क्यों ?
Aate hi kyo
स्वीकार किया होता तो हम आते ही क्यों?
इस भाँति पराये देश ढूँढने को साधन
अधिकार मिला होता तो बिलगाते ही क्यों!
सीढी बनना स्वीकार नहीं कर पाये हम,
सिर चढे रहे हम पर जो थे सुवधाभोगी!
सपने साकार कर सकें संभव हो न सका
जोगडा बना रह जाता यह घरका जोगी,
सागर के तट पर एक रेत का कण भर थे
नभ गंगा का तारा बनने को निकल पडे!
सामर्थ्य सिद्ध कर देने का अवसर मिलता
मानवगरिमा से पूर्ण सहज जीवन मिलता,
इस चकाचौंध के बीच डूबने आते क्यों!
बेबसी यही थी बाधायें हो गईं नियति,
जब भी आगे बढने को कोई कदम उठा,
रोडे अटके, अवरोधों ने बढ रोकी गति
सारे उत्साहों पर पानी न फिरा होता
अवसाद निराशा से बचने का पथ मिलता
आगे बढने के लये पाँव आकुल थे जो,
थोडी भी सुविधा नहीं विषम सी द्विविधायें,
अपने शैशव,अपने यौवन की गाँव-गली,
अपनी माटी को छोड विदेश बसाते क्यों
कितनी रुकावटें, रोडे औ व्यवधान द्वेष
कुछ करने की थी बडी तमन्नायें मन में,
कोई भी सच को सुननेवाला मिला नहीं
अवसर पाया हम खाली हाथ चले आये
अपनी मिट्टी का मोह खींचता बार बार,
ऊँची ऊँची बातें केवल कहने भर की,
जाना समझा तो फिर हम नहीं बहल पाये
समझौतोंसे हर पल उद्वेलित हृदय लिये
इन आकाशों में पंख खोलने आते क्यों
ईमान बिका है भ्रष्टों के बाजारों में,
निष्ठायें लोटीं कूटनीति के चरण तले
ऊँचे पव्वों के दाँव जीतते हर अवसर,
हर जगह ढोल में पोल,करे किसकी प्रतीति
अपने हित हेतु बदल जाते हैं मानदंड,
संस्कारहीनता की संस्कृति पनपी ऐसी
नेता हैं भाँड छिछोर, भँडैती राज-नीति,
निर्लज्ज कुपढ़ निर्धारित करते रीति नीति,
उनकी लाठी हाँके ले जाती शासन को
जनता जनार्दन उदासीन, जो हो सो हो
मान्यता बुद्धि को मिलती लाठी से ऊपर,
तो फिर बाहरवालों के काज सुहाते क्यों!
‘वसुधा कुटुंब’ का पाठ हृदय में धार लिया,
अपनी धरती का ऋण हमने स्वीकार लिया
अवसर प्रयास को मिला दक्षिणा देने का,
सौभाग्य समझ आगे बढ़ हाथों हाथ लिया
अपनी संस्कृति के पहरेदार यहाँ है हम
मन से अपन स्वजनों से दूर कहां हैं हम
कुछ समझे कुछ कर सके अन्यथा सचमुच हम
इन अनजाने आकाशों पर छा जाते क्यों