अपना घर
Apna ghar
कहाँ है मेरा घर?
जाना चाहती हूँ ,
रहना चाहती हूँ अब वहीं!
छोटी थी तो समझ में नहीं आता था ,
सुनती थी पराई अमानत हूँ,
अपने घर जाकर जो मन आये करना!
धीरे-धीरे समझ में आता गया
कि यह घर मेरा नहीं ।
पर फिर यहाँ जन्म क्यों लिया?
बड़ी हुई – घर ढूँढा जाने लगा जहाँ भेज दी जाऊं ,
उऋण हो जायें ये लोग ,भार मुक्त!
चुपचाप चली आई नये लोगों में!
पर ये घर तो उनका था
जो लोग यहीं रहते आये थे!
मैं नवागता ,
ढालती रही अपने को उनके हिसाब से!
नाम उनका ,धाम उनका ,
सारी पहचान उनकी!
बनाये रखने की जिम्मेदारी मेरी थी ,
निभाती रही!
निबटाते -निबटाते चुक गई ,
अब भी रह रही हूँ पराये घरों में ,
सबके अपने ढंग!
ढाल रही हूँ फिर अपने को
कितनी बार ,कितनी तरह!
अंतर्मन बार-बार पुकारता है –
‘चलो अपने घर चलो!’
जनम-जनम से गुमनाम भटक रही हूं!
कहाँ है मेरा घर!