Hindi Poem of Pratibha Saksena “Dharti ka akarshan”,”धरती का आकर्षषण” Complete Poem for Class 9, Class 10 and Class 12

धरती का आकर्षषण

 Dharti ka akarshan

 

मैं इसको छोड़ कहाँ जाऊँ ,इस धरती का आकर्षण है!

ऊँचे पर्वत , गहरे सागर ,ये वन सरितायें ,ग्राम-नगर

ऋतुओं के नित-नित नये रूप इन सब में रमती हुई -डगर!

ये ज्योतिर्मय आकाश और ये ऋतंभरा रमणीय धरा –

इन सबसे ममता है मेरे इस माया-मोह भरे मन की ,

जिसने सिरजा साकार किया सिर पर उस माटी का ऋण है!

उन्मुक्त हँसी के कुछ पल भी धो जाते सारी कड़ुआहट ,

कुछ तन्मय पल भी डुबो-डुबो लेते हैं  अपनें में सुध-बुध!

अन्तर में उठते तूफानों का मूल  कहाँ ढूँढूँ  जाकर

कोई उत्तर पा जाने की आशा ले बैठी हूँ रुक कर!

जाने की बात करूँ फिर क्यों जब मिला नहीं आमंत्रण है!

जो व्यक्त हो रहे अनायास  मेरे वह  स्वर सुननेवाला ,

जो अर्थ जानता केवल मन ,कोई   उसको गुनने वाला,

मैं तुम को छोड़ कहाँ जाऊं , टेरते अहर्निश ,दुर्निवार!

प्रतिध्वनि रह रह कर टकराती अंतर्मन के झनझना तार!

उस पार व्यक्ति का हो जाना  जैसे सबसे निष्कासन है!

सारे संबंध न जाने क्यों अक्सर ही बेगाने लगते!

इन राग-विराग भरे गीतों के बोल मुझे थामे रहते ,

फिर वहाँ किस तरह साध सकूँगी अपना साँसों का सरगम!

उस ओर अनिश्चित है सब कुछ किस तरह सधेगा उचटा मन 

कडुवे-मीठे खट्टे अनुभव का अपना हिस्सा क्या कम है!

इन सबसे अगर किनारा कर मैं भी चल दूँ हो अनासक्त

जिनकी वाणी फूटी न कभी वे फिर  रह जायेंगे अव्यक्त

इस कर्म भूमि में कहीं न निष्क्रिय कर डाले संचित विषाद

कर सका पलायन कौन यहाँ, वैराग्य सिर्फ़ मन का प्रमाद

तृष्णायित मृग सा  व्याकुल मन उलझा जिसमें यह जीवन है

सब पाप -पुण्यफल यहीं सुलभ ,अपना परलोक यहीं लगता ,

मेरे भगवान यहीं बसते .मुझको ते स्वर्ग यहीं दिखता!

मेरे तो सारे तार  यहीं से जुड़े और संचालित भी ,

बाहरी जगत के भीतर ही मन का संसार बहुत रुचता ,

कुछ अता-पता मालूम नहीं वह लोक मुझे लगता भ्रम है!

ये शब्द, रूप, रस, गंध, परस, आनन्द-रूप प्रभु का प्रसाद!

इस राग भरे अंतर में उतर न आये पल  भर  में विराग!

गोरस की गागर मानव तन ,पकता सह सहकर घोर तपन

भर दिया उसी में  उफनाती कितनी सरिताओं का संगम ,

गागर रीती रह जाय न ये जितना पा लें उतना  कम है !

कितने मंथन के बाद मिला   कैसे सहेज रक्खे ग्वालन ,

कंकरी मार गागर फोड़ी ,ले  महाचोर    भागा माखन 

बहुरूपी  नटनागर की नित  छुप-छुप दधि- माखन की चोरी ,

किस आकर्षण से खिंची चली आती फिर भी ब्रज की भोरी!

मनमानी रोक सके उसकी  किसने पाया  इतना दम है!

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