हल्का-फुल्का
Halka Phulka
निकल आओ कमरे से बाहर ज़रा ,
इस खुली अगहनी धूप में बैठ लें!
खींच लें प्लास्टिकी कुर्सियाँ ,इस तरफ़
साथ चलती सड़क का किनारा मिले!
खिड़कियाँ कुछ खुली हैं घरों की अभी ,
झाँकती लड़कियों का नज़ारा मिले!
दूध के दाँत आगे के टूटे हुये
झर रही हैं हँसी की फुहारें बिखर ,
फूलवाली नई फ़्राक पहने हुये
एक बच्ची चली आ रही है इधर!
हाथ पकड़े हुये भाई थोड़ा बड़ा ,
दूसरे हाथ से है सम्हाले हुये
पेट से खिसक आता पजामा ज़रा!
वाह, ठेले पे ,कैसी हरी औ’ भरी
ताज़ी टूटी हुई वो मटर की फली!
हींग-ज़ीरा हरी मिर्च से छौंककर ,
साथ में शाम की चाय अदरक डली!
आओ , छीलें मटर भी यहीं बैठ कर
और छिलके उधर डाल दें गाय को!
कोई पूछे कि क्या हो रहा है, कहें ,
‘देख ले आप ही ,पूछता काय को?’
धूप जब तक इधर से उधर तक चले
हम भी अपनी वहीं कुर्सियाँ खींच लें!
आज टालो नहाना ,जरूरी नहीं ,
एक दिन ताश की गड्डियाँ फेंट लें!
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