क्या लाई हूँ!
Kya lai hu
क्या लाई हूँ अतीत से अपने साथ बाँध,
थोडे से अपनेपन के साथ परायापन,
कुछ मुस्काने कुछ उदासियाँ,
हर जगह साथ चलता जो एक अकेलापन!
बेबसी अजब सी, जिसे समझ पाना मुश्किल
कुछ ऐसा स्वाद कहें फीका या तीखा सा
आगे चलने के क्रम में जो छूटा जाता,
उसमें से कितना कुछ है साथ चला आता!
कैसी विरक्ति, कुछ मोहभंग जैसा विभ्रम,
जो भी ढूँढो वह तो मिलता ही नहीं कभी
सारा हिसाब गडबड हो जाता तितर-बितर,
जोडने जहाँ बैठो लगता घट गया सभी
कुछ यादें मीठी -खट्टी, औ’ नितान्त अपनी
जिनकी मिलती कोई भी तो अभिव्यक्ति नहीं,
ऐसी प्रतीति जो मन को भरमाती रहती,
विश्वास जमाने को है कहीं विभक्ति नहीं!
कुछ भूलापन सा अंतर में उमड़ा आता,
अटका ठिठका जो रुका कंठ में वाष्प बना!
टूटे संबंधों के कुछ चुभन भरे टुकड़े
भर जाते हैं मन में फिर-फिर अवसाद घना
आँचल की खूँट बँधी होंगी मीठी यादें,
कडवी तीखी घेरों को घेर रही होंगी
चुन्नट में सिमटा बिखरा कुछ कड़वापन-सा,
कितनी बेबसियाँ मन के द्वार पड़ी होंगी
उलझी गाँठोंवाली डोरी आ गई साथ
मन में यादों का उडता एक सिरा पकड़े
सुलझाने में डर है कि टूट ना जायँ कहीं,
काँटों की सोई चुभन कहीं फिर से उमड़े!
अपनी भूलों का बोझ और पछतावा भी,
भारी सा असंतोष फिर-फिर से भर जाता!
यह भान कि आगे बढ़ने में कितना खोया,
बन कर सवाल मुँह बाये खड़ा नजर आता!
पग बढ़ने के पहले ही अंधड़ गुजर गये,
अनगिनती बरसातें आ फेर गईं पानी,
अंतर के श्यामल-पट पर कुछ उजले अक्षर,
जो पढ़ न सकी मौसम की ऐसी मनमानी!
कितनी शिकायतें अपने साथ लगा लाई,
किस तरह सामना करूँ समझ बेबस होती,
कुछ कही-सुनी बातें कानों में अटकी हैं,
जो वर्तमान से लौटा वहीं लिये जातीं!
क्यों साथ चली आती है इतनी बडी भीड़,
जिसका अपनापन बहुत पराया सा लगता,
सपने जैसे लगते हैं,दिन जो गुजर गये,
हर तरफ एक अनजानापन पसरा दिखता
झरने लगता अँजुरी की शिथिल अँगुलियों से,
जितना भी करती हूँ समेटने का प्रयास,
यह दुस्सह बोध अकेले पड़ते जाने का,
बेगाने होते जाते अपनों की तलाश!
अन्तर्विरोध आ समा गये जाने कितने,
पल भर को भी विश्राम नहीं मन ले पाता,
अपने सुख- दुख जिससे कह लूँ हो सहज भाव
भूले से ही मिल जाय कहीं ऐसा नाता!