लेकिन संबोधन पर – राकेश खंडेलवाल
Lekin sambodhan par – Rakesh Khandelwal
सोचा मैने लिखूँ तुम्हें इक पत्र ह्रदय के भावों वाला
लेकिन संबोधन पर आकर अटकी रही कलम बेचारी
चाहा लिखूँ चम्पई फूलों के रंगों के पाटल वाली
चाहा लिखूं अधर पर खिलते कचनारों की लाली वाली
सोचा लिखूं सुधा का झरना देह धरे उतरा है भू पर
केसर में भीगी हो चन्दन की गंधों से महकी डाली
शतरूपे ! पर सिमट न पाता शब्दों में विस्तार रूप का
शब्दकोश ने हार मान कर दिखला दी अपनी लाचारी
सोचा छिटकी हुई ज्योत्सना लिखूँ शरद वाली पूनम की
सोचा लिखूँ प्रथम अँगड़ाई, फ़ागुन के बहके मौसम की
प्राची के मस्तक पर रखती हुई मुकुट इक रश्मि भोर की
याकि प्रेरणा एक सुखद तुम, लिखूं अजन्ता के उद्गम की
कलासाधिके ! कोई तुलना न्याय नहीं तुमसे कर पाती
क्या मैं देकर नाम पुकारूँ, बढ़ती रही मेरी दुश्वारी
सॄष्टा की जो मधुर कल्पना, कैसे उसको कहो पुकारूँ
जो है अतुल उसे मैं केवल शब्दों से किस तरह संवारूँ
चित्रलिखित हैं नयन और वाणी हो जाती है पाषाणी
तब भावों की अभिव्यक्ति को, किस सांचे में कहो उतारूँ
मधुर सरगमे ! एक नाम से सम्बोधित कर सकूँ असंभव
एक फूल में नहीं समाहित होती गंध भरी फुलवारी
इसीलिये संबोधन पर आ अटकी रही कलम बेचारी