Hindi Poem of Ramdhari Singh Dinkar “Sipahi ”, “सिपाही ” Complete Poem for Class 10 and Class 12

सिपाही -रामधारी सिंह दिनकर

Sipahi -Ramdhari Singh Dinkar

वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ,
ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्यों ही, कभी न मोह हुआ।
जीवन की क्या चहल-पहल है, इसे न मैने पहचाना,
सेनापति के एक इशारे पर मिटना केवल जाना।

मसि की तो क्या बात? गली की ठिकरी मुझे भुलाती है,
जीते जी लड़ मरूं, मरे पर याद किसे फिर आती है?
इतिहासों में अमर रहूँ, है ऐसी मृत्यु नहीं मेरी,
विश्व छोड़ जब चला, भुलाते लगती फिर किसको देरी?

जग भूले पर मुझे एक, बस सेवा धर्म निभाना है,
जिसकी है यह देह उसी में इसे मिला मिट जाना है।
विजय-विटप को विकच देख जिस दिन तुम हृदय जुड़ाओगे,
फूलों में शोणित की लाली कभी समझ क्या पाओगे?

वह लाली हर प्रात: क्षितिज पर आ कर तुम्हे जगायेगी,
सायंकाल नमन कर माँ को तिमिर बीच खो जायेगी।
देव करेंगे विनय किंतु, क्या स्वर्ग बीच रुक पाऊंगा?
किसी रात चुपके उल्का बन कूद भूमि पर आऊंगा।

तुम न जान पाओगे, पर, मैं रोज खिलूंगा इधर-उधर,
कभी फूल की पंखुड़ियाँ बन, कभी एक पत्ती बन कर।
अपनी राह चली जायेगी वीरों की सेना रण में,
रह जाऊंगा मौन वृंत पर, सोच न जाने क्या मन में!

तप्त वेग धमनी का बन कर कभी संग मैं हो लूंगा,
कभी चरण तल की मिट्टी में छिप कर जय जय बोलूंगा।
अगले युग की अनी कपिध्वज जिस दिन प्रलय मचाएगी,
मैं गरजूंगा ध्वजा-श्रृंग पर, वह पहचान न पायेगी।

‘न्यौछावर मैं एक फूल पर’, जग की ऎसी रीत कहाँ?
एक पंक्ति मेरी सुधि में भी, सस्ते इतने गीत कहाँ?

कविते! देखो विजन विपिन में वन्य कुसुम का मुरझाना,
व्यर्थ न होगा इस समाधि पर दो आँसू कण बरसाना।

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