भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागार से हम
Bhadka rahe he aag lab e namagar se hum
भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागार से हम|
ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम|
कुछ और बड़ गए अंधेरे तो क्या हुआ,
मायूस तो नहीं हैं तुलु-ए-सहर से हम|
[सहर=शाम]
ले दे के अपने पास फ़क़त एक नज़र तो है,
क्यूँ देखें ज़िन्दगी को किसी की नज़र से हम|
माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके,
कुछ ख़ार कम कर गए गुज़रे जिधर से हम|