Hindi Poem of Sarveshwar Dayal Saxena “Andhere ka musafir“ , “अँधेरे का मुसाफ़िर” Complete Poem for Class 9, Class 10 and Class 12

अँधेरे का मुसाफ़िर

 Andhere ka musafir

यह सिमटती साँझ,

यह वीरान जंगल का सिरा,

यह बिखरती रात, यह चारों तरफ सहमी धरा;

उस पहाड़ी पर पहुँचकर रोशनी पथरा गयी,

आख़िरी आवाज़ पंखों की किसी के आ गयी,

रुक गयी अब तो अचानक लहर की अँगड़ाइयाँ,

ताल के खामोश जल पर सो गई परछाइयाँ।

दूर पेड़ों की कतारें एक ही में मिल गयीं,

एक धब्बा रह गया, जैसे ज़मीनें हिल गयीं,

आसमाँ तक टूटकर जैसे धरा पर गिर गया,

बस धुँए के बादलों से सामने पथ घिर गया,

यह अँधेरे की पिटारी, रास्ता यह साँप-सा,

खोलनेवाला अनाड़ी मन रहा है काँप-सा।

लड़खड़ाने लग गया मैं, डगमगाने लग गया,

देहरी का दीप तेरा याद आने लग गया;

थाम ले कोई किरन की बाँह मुझको थाम ले,

नाम ले कोई कहीं से रोशनी का नाम ले,

कोई कह दे, “दूर देखो टिमटिमाया दीप एक,

ओ अँधेरे के मुसाफिर उसके आगे घुटने टेक!”

 

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