Hindi Poem of Shivmangal Singh ‘Suman’“Mein Badha hi Ja raha Hu , “मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ ” Complete Poem for Class 10 and Class 12

मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ – शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

Mein Badha hi Ja raha Hu –Shivmangal Singh ‘Suman’

मैं बढ़ा ही जा रहा हूँ, पर

तुम्हें भूला नहीं हूँ।

 चल रहा हूँ, क्योंकि चलने से थकावट दूर होती,

जल रहा हूँ क्योंकि जलने से तमिस्त्रा चूर होती,

गल रहा हूँ क्योंकि

हल्का बोझ हो जाता हृदय का,

ढल रहा हूँ क्योंकि ढलकर साथ पा जाता समय का।

चाहता तो था कि रुक लूँ पार्श्व में क्षण-भर तुम्हारे

किन्तु अगणित स्वर बुलाते हैं मुझे बाँहे पसारे,

अनसुनी करना उन्हें भारी प्रवंचन कापुरुषता

 मुँह दिखाने योग्य रक्खेगी ना मुझको स्वार्थपरता।

 इसलिए ही आज युग की देहली को लाँघ कर मैं-

पथ नया अपना रहा हूँ

 पर तुम्हें भूला नहीं हूँ।

ज्ञात है कब तक टिकेगी यह घड़ी भी संक्रमण की

 और जीवन में अमर है भूख तन की, भूख मन की

 विश्व-व्यापक-वेदना केवल कहानी ही नहीं है

 एक जलता सत्य केवल आँख का पानी नहीं है।

शान्ति कैसी, छा रही वातावरण में जब उदासी

 तृप्ति कैसी, रो रही सारी धरा ही आज प्यासी ध्यान

तक विश्राम का पथ पर महान अनर्थ होगा

 ऋण न युग का दे सका तो जन्म लेना व्यर्थ होगा।

 इसलिए ही आज युग की आग अपने

राग में भर- गीत नूतन गा रहा हूँ

 पर तुम्हें भूला नहीं हूँ।

सोचता हूँ आदिकवि क्या दे गये हैं हमें थाती

 क्रौञ्चिनी की वेदना से फट गई थी हाय छाती

 जबकि पक्षी की व्यथा से आदिकवि का व्यथित अन्तर

 प्रेरणा कैसे न दे कवि को मनुज कंकाल जर्जर।

अन्य मानव और कवि में है बड़ा कोई ना अन्तर

 मात्र मुखरित कर सके, मन की व्यथा, अनुभूति के स्वर

 वेदना असहाय हृदयों में उमड़ती जो निरन्तर

कवि न यदि कह दे उसे तो व्यर्थ वाणी का मिला वर

 इसलिए ही मूक हृदयों में घुमड़ती विवशता को-

मैं सुनाता जा रहा हूँ पर तुम्हें भूला नहीं हूँ।

आज शोषक-शोषितों में हो गया जग का विभाजन

 अस्थियों की नींव पर अकड़ा खड़ा प्रासाद का तन

 धातु के कुछ ठीकरों पर मानवी-संज्ञा-विसर्जन

 मोल कंकड़-पत्थरों के बिक रहा है मनुज-जीवन।

एक ही बीती कहानी जो युगों से कह रहे हैं

 वज्र की छाती बनाए, सह रहे हैं, रह रहे हैं

 अस्थि-मज्जा से जगत के सुख-सदन गढ़ते रहे जो

 तीक्ष्णतर असिधार पर हँसते हुए बढ़ते रहे जो

 अश्रु से उन धूलि-धूसर शूल जर्जर क्षत पगों को-

मैं भिगोता जा रहा हूँ पर तुम्हें भूला नहीं हूँ।

आज जो मैं इस तरह आवेश में हूँ अनमना हूँ

 यह न समझो मैं किसी के रक्त का प्यासा बना हूँ

 सत्य कहता हूँ पराए पैर का काँटा कसकता

 भूल से चींटी कहीं दब जाय तो भी हाय 

करता  पर जिन्होंने स्वार्थवश जीवन विषाक्त बना दिया है

 कोटि-कोटि बुभुक्षितों का कौर तलक छिना लिया है

‘लाभ शुभ’ लिख कर ज़माने का हृदय चूसा जिन्होंने

 और कल बंगालवाली लाश पर थूका जिन्होंने।

 बिलखते शिशु की व्यथा पर दृष्टि तक जिनने न फेरी

 यदि क्षमा कर दूँ उन्हें धिक्कार माँ की कोख मेरी

 चाहता हूँ ध्वंस कर देना विषमता की कहानी

 हो सुलभ सबको जगत में वस्त्र, भोजन, अन्न, पानी।

 नव भवन निर्माणहित मैं जर्जरित प्राचीनता का-

गढ़ ढ़हाता जा रहा हूँ।

 पर तुम्हें भूला नहीं हूँ।

 

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