अब तक की यात्रा में
Ab tak ki yatra me
जल कुम्भी गंगा में बह आई है!
यहाँ भला कैसे रह पाएगी हाय,
बंधे हुए जल में जो रह आई है!
जल कुम्भी…!
नौका परछाई को तट माने है
हर उठती हुई लहर को अक्सर
हवा चले हिलता पोखर जाने है
अपनावे पर यह विश्वास
फिर न कभी आ पाऊंगी शायद–
घाट-घाट कह आई है!
जल कुम्भी…!
बरखा की बूंद हो कि शबनम हो
पानी की उथल-पुथल
चाहे कुछ ज़्यादा हो या थोड़ी-सी कम हो
कभी नहीं तकती आकाश
इससे भी कहीं अधिक सुख-दुख वह
अब तक की यात्रा में सह आई है!
जल कुम्भी…!