अजीब सुब्ह थी दीवार ओ दर कुछ और से थे
Ajeeb subah thi divar o dar kuch aur se the
निगाह देख रही थी कि घर कुछ और से थे
वो आशियाने नहीं थे जहाँ पे चिड़ियाँ थीं
शजर कुछ और से उन पर समर कुछ और से थे
तमाम कश्तियाँ मंजधार में घिरी हुई थीं
हर एक लहर में बनते भँवर कुछ और से थे
बहुत बदल गया मैदान-ए-जंग का नक़्शा
वो धड़ कुछ और से थे उन पे सर कुछ और से थे
मिरे हलीफ़ मिरे साथ थे लड़ाई में
हर एक शख़्स के तेवर मगर कुछ और से थे
कई पड़ाव थे मंज़िल की राह में ‘ताबिश’
मिरे नसीब में लेकिन सफ़र कुछ और से थे