प्रतीक्षा की समीक्षा
Pratiksha ki samiksha
पर जिसको आना था
वह नहीं आया
– व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
सहन में फिर उतरा पीला-सा हाशिया
साधों पर पाँव धरे चला गया डाकिया
और रोज़-जैसा
मटमैला दिन गुज़रा
गीत नहीं गाया
– व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
भरे इंतज़ारों से एक और गठरी
रह-रहकर ऊंघ रही है पटेल नगरी
अधलिखी मुखरता
कह ही तो गई वाह!
ख़ूब गुनगुनाया
-व्यंग्य किए चली गई धूप और छाया।
खिडकी मैं बैठा जो गीत है पुराना
देख रहा पत्रों का उड़ रहा खज़ाना
पूछ रहा मुझसे
पतझर के पत्तों में
कौन है पराया