आखिरकार चींटी का मुंह खारा का खारा ही रहा
Akhikar chinti ka muh khara ka khara hi raha
दो चींटियां आपस में बातें कर रही थीं। एक ने कहा- बस मुझे एक ही कष्ट है कि मेरा मुंह हर समय खारा ही रहता है। यह सुन दूसरी चींटी ने उसे मीठा पदार्थ खाने को दिया, लेकिन फिर भी उसका कष्ट दूर नहीं हुआ।
एक चींटी पेड़ के ऊपर चढ़ रही थी। ऊपर से दूसरी चींटी नीचे की ओर आ रही थी। पहली चींटी ने दूसरी चींटी से पूछा-कहो बहन, कुशल मंगल तो है? दूसरी चींटी ने कहा- क्या बताऊं बहन! और सब तो ठीक है किंतु एक कष्ट है। पहली चींटी ने कहा- बताओ बहन क्या कष्ट है? दूसरी चींटी ने कहा- मुंह का स्वाद बिगड़ा रहता है। हर समय मुंह खारा ही रहता है।
क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आता। पहली चींटी ने समझ-बूझ से काम लेते हुए कहा- तुम समुद्र के किनारे रहती हो न, इसलिए ऐसा होता है। आओ मेरे साथ, मैं मीठे फल के पेड़ पर रहती हूं। तुम्हारा मुंह भी मीठा कराती हूं। पहली चींटी उसे अपने घर ले गई, जो पेड़ के तने के कोटर में था। वहां कई प्रकार के मीठे पदार्थो के छोटे-छोटे टुकड़े पड़े थे। उसने अतिथि चींटी को प्यार से कई मीठे व्यंजन खिलाए।
दूसरी चींटी ने डटकर मीठा खाया। जब वह खूब खा चुकी तो पहली चींटी ने उससे पूछा कहो बहन, अब तो तुम्हारा मुंह खारा नहीं है? किंतु दूसरी चींटी ने कहा- मेरा मुंह तो अब तक खारा है। इस पर पहली चींटी हैरानी से बोली- ऐसा कैसे हो सकता है? कहीं तुम्हारे मुंह में नमक की डली तो नहीं है? दूसरी चींटी ने कहा- सो तो है। समुद्र के किनारे रहती हूं इसलिए नमक तो मुंह में रखती ही हूं। तब पहली चींटी बोली- फिर मुंह का खारापन कैसे दूर होगा? मुंह मीठा करना है तो पहले नमक की डली बाहर थूको।
सार यह है कि ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति मनुष्य है किंतु अज्ञानतावश स्वयं को निर्बल समझकर वह दुखी रहता है। जरूरत है अपनी आंखों पर से पर्दा हटाने की। बुद्धि व परिश्रम से अपना भाग्य मनुष्य स्वयं बदल सकता है।