महाभारत के अंत में महादेव शिव ने पांडवो को दिया था पुनर्जन्म का श्राप
Mahabharat ke ant me Mahadev Shiv ne Pandavo ko diya tha Punarjanam ka shrap
महाभारत युद्ध समाप्ति की ओर था, युद्ध के अंतिम दिन दुर्योधन ने अश्वत्थामा को कौरव सेना का सेनापति नियुक्त किया। अपनी आखरी सांसे ले रहा दुर्योधन अश्वत्थामा से बोला की तुम यह कार्य निति पूर्वक करो या अनीति पूर्वक पर मुझे पांचो पांडवो का कटा हुआ शीश देखना है।
दुर्योधन को वचन देकर अश्वत्थामा अपने बचे कुछ सेना नायकों के साथ पांडवो के मृत्यु का षड्यंत्र रचने लगा। भगवान श्री कृष्ण यह जानते थे की महाभारत के अंतिम दिन काल जरूर कुछ ना कुछ चक़्कर जरूर चलाएगा। अतः उन्होंने महादेव शिव की विशेष आराधना आरम्भ कर दी।
श्री कृष्ण ने भगवान शिव की स्तुति करते हुए कहा हे ! आदिदेव महादेव शिव आप ही पुरे सृष्टि के सृजनकर्ता हो, विनाशकर्ता हो।
सभी पापो से मुक्ति दिलाने वाले और अपने भक्तो पर शीघ्र प्रसन्न हो जाने वाले भोलेनाथ में आपके चरणों में अपने शीश नवाता हु। हे ! देवादिदेव पांडव मेरे शरण में है अतः उनकी हर कष्टों से रक्षा करें।
भगवान कृष्ण द्वारा स्वयं महादेव की स्तुति करने पर महादेव तुरंत नंदी में सवार होकर उनके समक्ष प्रकट हुए। तथा हाथ में त्रिशूल धारण किये पांडवो के शिविर के बाहर उनकी रक्षा करने लगे। सभी पांडव उस समय शिविर के नजदीक ही स्थित नदी में स्नान कर रहे थे।
मध्यरात्रि के समय अश्वत्थामा, कृतवर्मा, कृपाचर्य आदि पांडवो के शिविर के पास आये परन्तु जब उन्होंने शिविर के बाहर महादेव शिव को पहरा देते देखा तो वे थोड़ी देर के लिए ठिठके। इसके बाद उन्होंने भी महादेव की स्तुति करना आरम्भ कर दिया।
महादेव तो अपने हर किसी भक्त पर अति शीघ्र प्रसन्न हो जाते है अतः वे उन तीनो पर प्रसन्न हो गए तथा उन्होंने अश्वत्थामा से वरदान मांगने को कहा।
अश्वत्थामा ने भगवान शिव से दो वरदान मांगे, उसने पहला वरदान तो भगवान शिव से यह माँगा की हे शिव मुझे ऐसा खड्ग मिले जिसके साधारण प्रहार से भी संसार का सबसे बड़ा महारथी भी दो भागो में विभक्त हो जाए।
दुसरा वरदान अश्वत्थामा ने यह माँगा की वह एक रात्रि के लिए पांडवो के शिविर को निर्भय होकर देख सके। भगवान शिव ने अश्वत्थामा के वरदान के अनुरुप उसे एक शक्तिशाली तलवार दिया तथा उन्हें पांडवो के शिविर में जाने की आज्ञा दे दी।
फिर अश्वत्थामा ने अपने दोनों साथियो के साथ पांडवो के शिविर में घुसकर धृष्टद्युम्न के साथ पांडवो के पुत्रों का वध कर दिया।
इसके बाद वे तीनो पांडवो के पुत्रों के शीश कटे हुए शीश को लेकर वापस लोट गए। शिविर में अकेले बचे पार्षद सूत ने इस जनसंहार की खबर पांडवो को दी।
जब ये खबर पांडवो ने सुनी तो वे शोक में आ गए तथा वे ये सोचने लगे की स्वयं महादेव के रहते किसने शिविर में घुसकर हमारे पुत्रों की हत्या करी। हो न हो यह स्वयं महादेव ही है जिन्होंने हमारे पुत्रों की हत्या करी है ऐसा मन में सोच कर वे क्रोध में भगवान शिव से युद्ध करने चल पड़े।
अपने पुत्रों के शोक में पांडव अपनी मर्यादा भूलकर भगवान शिव से युद्ध करने लगे। वे जितने भी अस्त्र भगवान शिव पर चलाते है वे सभी भगवान शिव पर विलीन हो जाते थे। क्योकि पांडव भगवान शिव के शरण में थे तथा उन्होंने भगवान श्री कृष्ण को उनके रक्षा करने का आशीर्वाद दिया था अतः भगवान शिव शांत भाव में पांडवो की मूर्खता को देखते रहे।
अंत में भगवान शिव पांडवो से बोले क्योकि तुम मेरे शरणार्थी हो अतः में तुम्हे तुम्हारे इस अपराध के लिए क्षमा करता हु परन्तु तुम्हे कलयुग में इस अपराध की सजा भुगतनी पड़ेगी। ऐसा कह कर भगवान शिव अदृश्य हो गए।
जब पांडवो को अपनी गलती का सहसा हुआ तो वे भगवान श्री कृष्ण के शरण में गए तथा उनसे मुक्ति का उपाय जानने लगे। तब भगवान श्री कृष्ण बोले इसका समाधान स्वयं महादेव शिव ही कर सकते हे आओ उनकी स्तुति करें। तब श्री कृष्ण के साथ मिलकर पांडवो ने महादेव शिव की आराधना शुरू कर दी। उनकी स्तुति सुन भगवान शिव प्रसन्न हुए तथा उनके सामने प्रकट हुए।
पांडवो की और से भगवान कृष्ण शिव से बोले की हे प्रभु पांडवो ने जो मूर्खता करी थी उसके लिए वे क्षमाप्राथी है। अतः इन्हे क्षमा करें तथा उन्हें दिए गए श्राप से मुक्ति दिलाये।
आदिदेव शिव बोले की हे, कृष्ण उस समय में माया के प्रभाव में था जिस कारण मेने पांडवो को श्राप दे दिया था। तथा अब में अपना यह श्राप वापस लेने में असमर्थ हु, पर में मुक्ति का मार्ग बताता हु।
पांडव तथा कौरव अपने अंश से कलयुग में जन्म लेंगे और अपने पाप को भोगकर श्राप से मुक्ति पाएंगे।
युधिस्ठर वत्सराज का पुत्र बनकर जन्म लेगा। उसका नाम बलखानी होगा तथा वह शिरीष नगर का राजा होगा, भीम विरान के नाम से बनारस में राज करेगा। अर्जुन के अंश से ब्र्ह्मानन्द जन्म लेगा जो मेरा भक्त होगा। नकुल के अंश से जन्म होगा कान्यकुब्ज का जो रत्नाभानु का पुत्र होगा। सहदेव भीमसिंह के पुत्र देवसिंह के रूप में जन्म लेगा।