शौर्य का प्रतिरूप अभिमन्यु
Shorya ka Pratiroop Abhimanu
अभिमन्यु अर्जुन का पुत्र था। श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा इनकी माता थी। यह बालक बड़ा होनहार था। अपने पिता के-से सारे गुण इसमें विद्यमान थे। स्वभाव का बड़ा क्रोधी था और डरना तो किसी से इसने जाना ही नहीं था। इसी निर्भयता और क्रोधी स्वभाव के कारण इसका नाम अभि (निर्भय) मन्यु (क्रोधी) ‘अभिमन्यु’ पड़ा था।
अर्जुन ने धनुर्वेद का सारा ज्ञान इसको दिया था। अन्य अस्त्र-शस्त्र चलाना भी इसने सीखा था। पराक्रम में यह किसी वीर से भी कम नहीं था। सोलह वर्ष की अवस्था में ही अच्छे-अच्छे सेनानियों को चुनौती देने की शक्ति और समार्थ्य इसमें थी। इसकी मुखाकृति और शरीर का डीलडौल भी असाधारण योद्धा का-सा था। वृषभ के समान ऊंचे और भरे हुए कंधे थे। उभरा वक्षस्थल था और आंखों में एक जोश था।
महाभारत का भीषण संग्राम छिड़ा हुआ था। पितामह धराशायी हो चुके थे। उनके पश्चात गुरु द्रोणाचार्य ने कौरवों का सेनापतित्व संभाला था। अर्जुन पूरे पराक्रम के साथ युद्ध कर रहा था। प्रचण्ड अग्नि के समान वह बाणों की वर्षा करके कौरव सेना को विचलित कर रहा था। द्रोणाचार्य कितना भी प्रयत्न करके अर्जुन के इस वेग को नहीं रोक पा रहे थे। कभी-कभी तो ऐसा लगता था, मानो पाण्डव कौरवों को कुछ ही क्षणों में परास्त कर डालेंगे। प्रात:काल युद्ध प्रारंभ हुआ। श्रीकृष्ण अपना पांचजन्य फूंकते, उसी क्षण अर्जुन के बाणों से कौरव सेना में हाहाकार मचने लगता। संध्या तक यही विनाश चलता रहता।
दुर्योधन ने इससे चिंतित होकर गुरु द्रोणाचार्य से कहा, “हे आचार्य ! यदि पांडवों की इस गति को नहीं रोका गया, तो कौरव-सेना किसी भी क्षण विचलित होकर युद्धभूमि से भाग खड़ी होगी। अत: कोई ऐसा उपाय करिए, जिससे पांडवों की इस बढ़ती शक्ति को रोका जाए और अर्जुन के सारे प्रयत्नों को निष्फल किया जाए।”
दुर्योधन को इस प्रकार चिंतित देखकर गुरु द्रोणाचार्य ने किसी प्रकार अर्जुन को युद्धभूमि से हटा देने का उपाय सोचा। दुर्योधन के कहने से संशप्तकों ने कुरुक्षेत्र से दूर अर्जुन को युद्ध के लिए चुनौती दी। अर्जुन उनसे लड़ने को चला गया। उसके पीछे से द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना की और युधिष्ठिर के पास संवाद भिजवाया कि या तो पांडव आकर कौरव-सेना के इस चक्रव्यूह को तोड़ें यह अपनी पराजय स्वीकार करें।
जब संवाद युधिष्ठिर के पास पहुंचा तो वे बड़ी चिंता में पड़ गए, क्योंकि अर्जुन के सिवा चक्रव्यूह को तोड़ना कोई पाण्डव नहीं जानता था। अर्जुन बहुत दूर संशप्तकों से युद्ध कर रहा था। चक्रव्यूह तोड़ने में अपने आपको असमर्थ देखकर पांडवों के शिविर में त्राहि-त्राहि मच उठी। युधिष्ठिर, भीम, धृष्टद्युम्न आदि कितने ही पराक्रमी योद्धा थे, जो बड़े-से-बड़े पराक्रमी कौरव सेनानी को चुनौती दे सकते थे, लेकिन चक्रव्यूह तोड़ने का कौशल, किसी को भी नहीं आता था। वह ऐसा व्यूह था, जिसमें पहले तो घुसना और उसको तोड़ना ही मुश्किल था और फिर सफलतापूर्वक उसमें से बाहर निकलना तो और भी दुष्कर कार्य था। कौरव सेना के सभी प्रमुख महारथी उस चक्रव्यूह के द्वारों की रक्षा कर रहे थे।
जब सभी किंकर्तव्यविमूढ़ के सभा में बैठे हुए थे और अर्जुन के बिना, सिवाय इसके कि वे अपनी पराजय स्वीकार कर लें, कोई दूसरा उपाय उनको नहीं सूझ पड़ रहा था, अभिमन्यु वहां आया और सभी को गहन चिंता में डूबा हुआ पाकर युधिष्ठिर से पूछने लगा कि चिंता का क्या कारण है। युधिष्ठिर ने सारी बात बता दी। उसे सुनकर वह वीर बालक अपूर्व साहस के साथ बोला, “आर्य ! आप इसके लिए चिंता न करें। दुष्ट कौरवों का यह षड्यंत्र किसी प्रकार भी सफल नहीं हो सकेगा। यदि अर्जुन नहीं हैं, तो उनका वीर पुत्र अभिमन्यु तो यहां है। आप दुर्योधन की चुनौती स्वीकार कर लीजिए। मैं चक्रव्यूह तोड़ने के लिए जाऊंगा।”
अभिमन्यु की बात सुनकर सभी को आश्चर्य होने लगा। एक साथ सबकी नीचे झुकी हुई गरदनें ऊपर उठ गईं। फिर भी युधिष्ठिर ने इसे अभिमन्यु की नादानी ही समझा। उन्होंने पूछा, “बेटा ! तुम्हारे पिता अर्जुन के सिवा इनमें से कोई भी चक्रव्यूह भेदना नहीं जानता, फिर तुम कैसे इसका भेदन कर सकते हो? हाय ! आज अर्जुन होता तो यह अपमान न सहना पड़ता। संध्या काल तक भी वह गाण्डीवधन्वा नहीं आ सकेगा और पांडवों की यह सेना, जिसको लेकर वह प्रचण्ड वीर अभी तक युद्ध करता रहा है, अपने अस्त्र डालकर कौरवों से पराजय स्वीकार कर लेगी, हाय ! हाय क्रूर विधाता !”
यह कहकर युधिष्ठिर अधीर हो उठे। उसी क्षण अभिमन्यु ने सिंह की तरह गरजकर कहा, “आर्य ! आप मुझे बालक न समझें। मेरे रहते पाण्डवों का गौरव कभी नहीं मिट सकता। मैं चक्रव्यूह को भेदना जानता हूं। पिता ने मुझे चक्रव्यूह के भीतर घुसने की क्रिया तो बतला दी थी, लेकिन उससे बाहर निकलना नहीं बताया था। आप किसी प्रकार चिंता न करें। मैं अपने पराक्रम पर विश्वास करके चक्रव्यूह को तोडूंगा और उससे बाहर भी निकल आऊंगा। आप चुनौती स्वीकार कर लीजिए और युद्ध के लिए मुझे आज्ञा देकर शंख बजा दीजिए। उस दुर्योधन को संदेश भिजवा दीजिए कि वीर धनंजय का पुत्र अभिमन्यु उनकी सारी चाल को निष्फल करने के लिए आ रहा है।”
कितनी ही बार अभिमन्यु ने इसके लिए हठ किया। परिस्थिति भी कुछ ऐसी थी। युधिष्ठिर ने उसको आज्ञा दे दी। अभिमन्यु अपना धनुष लेकर युद्धभूमि की ओर चल दिया। उसकी रक्षा के लिए भीमसेन, धृष्टद्युम्न और सात्यकि चले।
चक्रव्यूह के पास पहुंचकर अभिमन्यु ने बाणों की वर्षा करना आरंभ कर दिया और शीघ्र ही अपने पराक्रम से उसने पहले द्वार को तोड़ दिया और वह तीर की-सी गति से व्यूह के अंदर घुस गया, लेकिन भीमसेन, सात्यकि और धृष्टद्युम्न उसके पीछे व्यूह में नहीं घुस पाए। उन्होंने कितना ही पराक्रम दिखाया, लेकिन जयद्रथ ने उनको रोक लिया और वहीं से अभिमन्यु अकेला रह गया। अर्जुन का वह वीर पुत्र अद्भुत योद्धा था। व्यूह के द्वार पर उसे अनेक योद्धाओं से भीषण युद्ध करना पड़ा था, लेकिन उसका पराक्रम प्रचण्ड अग्नि के समान था। जो कोई उसके सामने आता था, या तो धराशायी हो जाता या विचलित होकर भाग जाता था। इस तरह व्यूह के प्रत्येक द्वार को वह तोड़ना चला जा रहा था। कौरवों के महारथियों ने उस वीर बालक को दबाने का कितना ही प्रयत्न किया, लेकिन वे किसी प्रकार भी उसे अपने वश में नहीं कर पाए। उसके तीक्ष्ण बाणों की मार से व्याकुल होकर दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य से कहा, “हे आचार्य ! अर्जुन का यह वीर बालक चारों ओर विचर रहा है और हम कितना भी प्रयत्न करके इसकी भीषण गति को नहीं रोक पाते हैं। एक के बाद एक सभी द्वारों को इसने तोड़ दिया है। यह तो अर्जुन के समान ही युद्ध-कुशल और पराक्रमी निकला। अब तो पांडवों को किसी प्रकार पराजित नहीं किया जा सकता।”
इसी प्रकार कर्ण ने भी घबराकर द्रोणाचार्य से कहा, ” हे गुरुदेव ! इस पराक्रमी बालक की गति देखकर तो मुझको भी आश्चर्य हो रहा है। इसके तीक्ष्ण बाण मेरे हृदय को व्याकुल कर रहे हैं। यह ठीक अपने पिता अर्जुन के समान ही है। यदि किसी प्रकार इसको न रोका गया तो हमारी यह चाल व्यर्थ चली जाएगी। अत: किसी तरह से इसको चक्रव्यूह से जीवित नहीं निकलने देना चाहिए।”
द्रोणाचार्य अभिमन्यु की वीरता देखकर कुछ क्षणों के लिए चिंता में डूबे रहे। अर्जुन के उस वीर पुत्र के कर्ण, दू:शासन आदि महारथियों को पराजित कर दिया था और राक्षस अलंबुश को युद्धभूमि से खदेड़कर बृहद्बल को तो जान से मार डाला था। दुर्योधन के सामने ही उसके बेटे लक्ष्मण को भी उसने मार डाला था। बड़े-बड़े शूरवीर खड़े देखते रह गए और वह प्रचण्ड अग्नि की लपट की तरह सबको भस्म करता हुआ चक्रव्यूह को तोड़कर अंदर घुस गया।
जब कौरवों के सारे प्रयत्न निष्फल चले गए तो उन्होंने छल से काम लेने की बात सोची। अलग-अलग लड़कर कोई भी महारथी अभिमन्यु से नहीं जीत सकता था, इसलिए उन्होंने मिलकर उस पर आक्रमण करने का निश्चय किया। कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा बृहद्बल (शकुनि का चचेरा भाई), कृतवर्मा और दुर्योधन आदि छ: महारथियों ने उसे घेर लिया और उस पर भीषण आक्रमण कर दिया। कर्ण ने अपने बाणों से उस बालक का धनुष काट डाला। भोज ने उसके घोड़ों को मार डाला और कृपाचार्य ने उसके पाश्र्व रक्षकों के प्राण ले लिए। इस तरह अभिमन्यु पूरी तरह निहत्था हो गया, लेकिन फिर भी जो कुछ उसके हाथ में आया उससे ही वह शत्रुओं को विचलित करने लगा। थोड़ी ही देर में उसके हाथ में एक गदा आ गई। उससे उसने कितने ही योद्धाओं को मार गिराया। दु:शासन का बेटा उसके सामने आया। घोर संग्राम हुआ। अकेला अभिमन्यु छ: के सामने क्या करता। महारथियों ने अपने बाणों से उसके शरीर को छेद दिया। अब वह लड़ते-लड़ते थक गया था। इसी समय दु:शासन के बेटे ने आकर उसके सिर पर गदा प्रहार किया, जिससे अर्जुन का वह वीर पुत्र उसी क्षण पृथ्वी पर गिर पड़ा और सदा के लिए पृथ्वी से उठ गया। उसके मरते ही कौरवों के दल में हर्षध्वनि उठने लगी। दुर्योधन और उसके सभी साथी इस निहत्थे बालक की मृत्यु पर फूले नहीं समाए। किसी को भी उसकी अन्याय से की गई हत्या पर तनिक भी खेद और पश्चाताप नहीं था।
जब अभिमन्यु की मृत्यु का समाचार पाण्डव-दल में पहुंचा तो युधिष्ठिर शोक से व्याकुल हो उठे। अर्जुन की अनुपस्थिति में उन्होंने उसके लाल को युद्धभूमि में भेज दिया था, अब उनके आने पर वे उसको क्या उत्तर देंगे, इसका संताप उनके हृदय को व्याकुल कर रहा था। भीम भी अपने भतीजे की मृत्यु पर रोने लगा। वीर अभिमन्यु की मृत्यु से पांडवों के पूरे शिविर में हाहाकार मच गया।
संशप्तकों से युद्ध समाप्त करके जब अर्जुन वापस आया तो वह दुखपूर्ण समाचार सुनकर मूर्च्छित हो उठा और अभिमन्यु के लिए आर्त्त स्वर से रुदन करने लगा। श्रीकृष्ण ने उसे काफी धैर्य बंधाया, लेकिन अर्जुन का संताप किसी प्रकार भी दूर नहीं हुआ। प्रतिशोध की आग उसके अंतर में धधकने लगी और जब तक जयद्रथ को मारकर उसने अपने बेटे के खून का बदला न ले लिया, तब तक उसको संतोष नहीं आया।
श्रीकृष्ण को भी अभिमन्यु की मृत्यु पर कम दुख नहीं हुआ था, लेकिन वे तो योगी थी, बालकों की तरह रोना उन्हें नहीं आता था। प्रतिशोध की आग उनके अंदर भी जल रही थी। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि अपने भांजे अभिमन्यु की मृत्यु का बदला लिए बिना वह नहीं मानेंगे।
अभिमन्यु की स्त्री का नाम उत्तरा था। वह मत्स्य-नरेश विराट की पुत्री थी। अज्ञातवास के समय अर्जुन विराट के यहां उत्तरा को नाचने-गाने की शिक्षा देते थे। बाद में विराट को सारा हाल मालूम हो गया था, इसलिए लोकापवाद के डर से वे अपनी पुत्री का विवाह अर्जुन के सिवा किसी अन्य पुरुष के साथ नहीं करना चाहते थे। अर्जुन के स्वीकार न करने पर विराट ने उत्तरा का विवाह उसी के पुत्र अभिमन्यु के साथ कर दिया। इन दोनों का विवाह बाल्यावस्था में ही हो गया था। उस युग में बाल-विवाह की प्रथा तो इतनी प्रचलित नहीं थी, लेकिन विवाह के पीछे राजनीतिक कारण निहित था। पांडवों को इसके पश्चात मत्स्य-नरेश से हर प्रकार की सहायता मिल सकती थी।
अपने पति की मृत्यु पर उत्तरा शोक से पागल हो उठी थी। श्रीकृष्ण ने उसे कितना ही समझाया था, लकिन फिर भी कितने ही दिनों तक उसका रुदन एक क्षण को भी नहीं रुका था। वह उस समय गर्भवती थी। आततायी अश्त्थामा ने पांडवों के वंश को समूल नष्ट कर देने के लिए इस गर्भस्थ बालक पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया था, लेकिन श्रीकृष्ण ने उसे रोक लिया था और इस प्रकार श्रीकृष्ण ने ही पांडवों के कुल की रक्षा की। निश्चित अवधि के पश्चात उत्तरा के गर्भ से बालक का जन्म हुआ। चूंकि सभी कुछ क्षय हो जाने के पश्चात इस बालक का जन्म हुआ था, इसलिए इसका नाम परीक्षित रखा गया। यही पांडवों की वंश-परंपरा को आगे बढ़ाने वाला हुआ।