हंस और कौआ
Hans aur Kova
एक सरोबर था, समन्दर जैसा बड़ा। उसके किनारे बरगद का एक बहुत बड़ा पेड़ था। उस पर एक कौआ रहता था। कौआ तो काजल की तरह काला था, काना था और लंगड़ा था। कौआ कांव-कांव बोला करता था। जब वह उड़ता था, तो लगता था कि अब गिरा, अब गिरा। फिर भी उसके घमण्ड की तो कोई सीमा नहीं थी। वह मानता था कि उसकी तरह तो कोई उड़ही नहीं सकता, न कोई उसकी तरह बोल ही सकता है। कौआ लाल-बुझक्कड़ बनकर बैठता और सब कौओं को डराता रहता। एक बार वहां कुछ हंस आए। आकर बरगद पर रात भर रहे। सबेरा होने पर कौए ने हंसों को देखा। कौआ गहरे सोच में पड़ गया—‘भला ये कौन होंगे? ये नए प्राणी कहां के हैं?” कौए ने अपनी जिन्दगी में हंस कभी देखे होते तो वह उनको पहचान पाता? उसने अपना एक पंख घुमाया, एक टांग उठाई और रौब-भरी आवाज़ में पूछा, “आप सब कौन हैं? यहां क्यों आए हैं? बिना पूछे यहां क्यों बैठे हैं?” हंस ने कहा, “भैया! हम हंस हैं। घूमते-फिरते यहां आ गए हैं। थोड़ा आराम करने के बाद आगे बढ़ जायेंगे।” कौआ बोला, “सो तो मैंने सब जान लिया, लेकिन अब यह बताओ कि आप कुछ उड़ना भी जानते हैं या नहीं? या अपना शरीर योंही इतना बड़ा बना लिया है।” हंस ने कहा, “हां, हां उड़ना तो जानते हैं, और काफी उड़ भी लेते हैं।” कौए ने पूछा, “आप कौन-कौन-सी उड़ानें जानते हैं? अपने राम को तो इक्कावन उड़ाने आती हैं।” हंस ने कहा, “इक्कावन तो नहीं, लेकिन एकाध उड़ान हम भी उड़ लेते हैं।” कौआ बोला, “ओहो, एक ही उड़ान! अरे, इसमें कौन-सी बड़ी बात है?” हंस ने कहा, “हम तो बस इतना ही जानते हैं।” कौआ बोला, “कौए की बराबरी कभी किसी ने की है? कहां इक्कावन, और कहां एक? कौआ तो कौआ है ही, और हंस हंस हैं!” हंस सुनते रहे। वे मन-ही-मन हंसते भी रहे। लेकिन उन हंसों में एक नौजवान हंस भी था। उसके रहा नहीं गया। उसका खून उबल उठा। वह बोला, “कौए भैया! अब तो हद हो गई। बेकार की बकवास क्यों करते हो? आओ हम कुछ दूर उड़ लें। लेकिन पहले तुम हमें अपनी इक्कावन उड़ानें तो दिखा दो! फिर हम भी देखेंगे, और हमें पता चलेगा कि कैसे कौआ, कौआ है, और हंस, हंस हैं।” हंस बोला, “लो देखो।” हंस ने कहा, “दिखाओ।” कौए ने अपनी उड़ाने दिखाना शुरू किया। एक मिनट के लिए वह ऊपर उड़ा और बोला, “यह हुई एक उड़ान।” फिर नीचे आया और बोला, “यह दूसरी उड़ान।” फिर पत्ते-पत्ते पर उड़कर बैठा और बोला , “यह तीसरी उड़ान।” बाद में एक पैर से दाहिनी तरफ उड़ा और बोला, “यह चौथी उड़ान।” फिर बाईं तरफ उड़ा और बोला, “यह पांचवीं उड़ान।” कौआ अपनी ऐसी उड़ानें दिखाता गया। पांच, सात, पन्द्रह बीस, पच्चीस, पचास और इक्कावन उड़ानें उसने दिखा दीं। हंस तो टकटकी लगाकर देखते और मन-ही-मन हंसते रहे। इक्कावन उड़ानें पूरी करने के बाद कौआ मस्कराते-मुस्कराते आया और बोला, “कहिए, कैसी रही ये उड़ानें!
हंसो ने कहा, “उड़ानें तो ग़जब की थीं! लेकिन अब आप हमारी भी एक उड़ान देखेंगे न ?” कौआ बोला, “अरे, एक उड़ान को क्या देखना है! यों पंख फड़फड़ाए, और यों कुछ उड़ लिए, इसमें भला देखना क्या है?” हंसों ने कहा, “बात तो ठीक है, लेकिन इस एक ही उड़ान में हमारे साथ कुछ दूर उड़ाना हो, तो चली। उड़कर देख लो। ज़रा। तुम्हें पता तो चलेगा कि यह एक उड़ाने भी कैसी होती है?” कौआ बोला, “चलो, मैं तो तैयार हूं। इसमें कौन, कोई शेर मारना है।” हंस ने कहा, “लेकिन आपको साथ ही में रहना होगा। आप साथ रहेंगे, तभी तो अच्छी तरह देख सकेंगे न?” कौआ बोला, “साथ की क्या बात है? मैं तो आगे उड़ूंगा। आप और क्या चाहते हैं?” इतना कहकर कौए ने फटाफट पंख फड़फड़ाए और उड़ना शुरू कर दिया। बिलकुल धीरे-धीरे पंख फड़फड़ाता हुआ हंस भी पीछे-पीछे उड़ता रहा। इस बीच कौआ पीछे को मुड़ा और बोला, “कहिए! आपकी यही एक उड़ान है न? या और कुछ दिखाना बाक़ी है?” हंस ने कहा, “भैया, थोड़े उड़ते चलो, उड़ते चला, अभी आपको पता चल जायगा।” कौआ बोला, “हंस भैया! आप पीछे-पीछे क्यों आ रहे हैं? इत् धीमी चाल से क्यों उड़ रहे हैं? लगता है, आप उड़ने में बहुत ही कच्चे हैं!” हंस ने कहा, “ज़रा उड़ते रहिए। धीरे-धीरे उड़ना ही ठीक है।” कौए के पैरों में अभी जोर बाक़ी था। कौआ आगे-आगे और हंस पीछे-पीछे उड़ रहा था। कौआ बोला, “कहो, भैया! यही उड़ान दिखानी थी न? चलो, अब हम लौट चलें। तुम चलें। तुम थक गए होगे। इस उड़ान में कोई दम नहीं है।” हंस ने कहा, “ज़रा आगे तो उड़िए। अभी उड़ान दिखाना तो बाक़ी है।” कौआ आगे उड़ने लगा। लेकिन अब वह थक चुका था। अब तक आगे था, पर अब पीछे रह गया। हंस ने पूछा, “कौए भैया! पीछे क्यों रह गए! उड़ान तो अभी बाक़ी ही है।” कौआ बोला, “तुम उड़ते चलो, मैं देखता आ रहा हूं और उड़ भी रहा हूं।” लेकिन कौए भैया अब ढीले पड़ते जा रहे थे। उनमें अब उड़ने की ताक़त नहीं रही थी। उसके पंख अब पानी छूने लगे थे। हंस ने पूछा, “कौए भैया! कहिए, पानी को चोंच छूआकर उड़ने का यह कौन-सा तरीका है?” कौआ क्या जवाब देता? हंस आगे उड़ता चला, ओर कौआ पीछे रहकर पानी में डूबकियां खाने लगा। हंस ने कहा, “कौए भैया! अभी मेरी उड़ान तो देखनी बाकी है। आप थक कैसे गए?” पानी पीते-पीते भी कौआ आगे उड़ने की कोशिश कर रहा था। कुछ दूर और उड़ने के बाद वह पानी में गिर पड़ा। हंस ने पूछा, “कौए भैया! आपकी यह कौन-सी उड़ान है? बावनवीं या तिरपनवीं?” लेकिन कौआ तो पानी में डुबकियां खाने लगा था और आखिरी सांस लेने की तैयारी कर रहा था। हंस को दया आ गई। वह फुरती से कौए के पास पहुंचा और कौए को पानी में से निकालकर अपनी पीठ पर बैठा लिया। फिर उसे लेकर ऊपर आसमान की ओर उड़ चला। कौआ बोला, “ओ भैया! यह तुम क्या कर रहे हो? मुझे तो चक्कर आ रहे हैं। तुम कहां जा रहे हो? नीचे उतरो, नीचे उतरो।” कौआ थर-थर कांप रहा था। हंस ने कहा, “अरे जरा देखो तो सही! मैं तुमको अपनी यह एक उड़ान दिखा रहा हूं।” सुनकर कौआ खिसिया गया। उसको अपनी बेवकूफी का पता चल गया। वह गिड़गिड़ाने लगा। यह देखकर हंस नीचे उतरा औरा कौए को बरगद की डाल पर बैठ दिया। तब कौए को लगा कि हां, अब वह जी गया। लेकिन उस दिन से कौआ समझ गया कि उसकी बिसात कितनी है।
समाप्त