यह धरती कितना देती है -सुमित्रानंदन पंत Yah Dharti Kitni Deti Hai – Sumitranand Pant मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे, सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे, …
लहरों का गीत -सुमित्रानंदन पंत Lahron ka Geet – Sumitranand Pant अपने ही सुख से चिर चंचल हम खिल खिल पडती हैं प्रतिपल, जीवन के फेनिल मोती को ले …
विजय -सुमित्रानंदन पंत Vijay – Sumitranand Pant मैं चिर श्रद्धा लेकर आई वह साध बनी प्रिय परिचय में, मैं भक्ति हृदय में भर लाई, वह प्रीति बनी उर परिणय …
पर्वत प्रदेश में पावस -सुमित्रानंदन पंत Parvat Pradesh mein Pavas – Sumitranand Pant पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश, पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश। मेखलाकर पर्वत अपार अपने सहस्त्र दृग-सुमन फाड़, अवलोक …
दो लड़के -सुमित्रानंदन पंत Do Ladke – Sumitranand Pant मेरे आँगन में, (टीले पर है मेरा घर) दो छोटे-से लड़के आ जाते है अकसर! नंगे तन, गदबदे, साँवले, सहज …
प्रथम रश्म -सुमित्रानंदन पंत Pratham Rashmi – Sumitranand Pant प्रथम रश्मि का आना रंगिणि! तूने कैसे पहचाना? कहां, कहां हे बाल-विहंगिनि! पाया तूने वह गाना? सोयी थी तू स्वप्न …
बापू -सुमित्रानंदन पंत Bapu – Sumitranand Pant चरमोन्नत जग में जब कि आज विज्ञान ज्ञान, बहु भौतिक साधन, यंत्र यान, वैभव महान, सेवक हैं विद्युत वाष्प शक्ति धन बल …
घंटा -सुमित्रानंदन पंत Ghanta – Sumitranand Pant नभ की है उस नीली चुप्पी पर घंटा है एक टंगा सुन्दर, जो घड़ी घड़ी मन के भीतर कुछ कहता रहता बज …