जो सपने हमने बोए थे नीम की ठंडी छावों में
Jo sapne hamne boye the neem ki thandi chavo me
जो सपने हमने बोए थे नीम की ठंडी छाँवों में।
कुछ पनघट पर छूट गए कुछ काग़ज़ की नावों में।।
उम्र की रौ में बहने वाली बिजली को मालूम नहीं।
एक समंदर भी सोया है इन घनघोर घटाओं में।।
पास कहीं फागुन के दिन हैं मन हाथों से छूट रहा।
सरसों की भीनी ख़ुशबू है इन मदमस्त हवाओं में।।
नील गगन पर तारे छिटके खेत में अलसी फूल गई।
सारी नदियाँ डूब रहीं हैं अपनी ही धाराओं में।।
पायल बिछुआ ईंगुर रोली हल्दी रंग गुलाल सभी।
रूप की पिछली तस्वीरें हैं आज की सुन्दरताओं में।।
दर्द की धुन पर एक हक़ीक़त याद के नगमें छेड़ रही।
नाच रही है महफ़िल-महफ़िल घुँघरू बाँधे पावों में।।
पलकों पर ठहरा है आँसू ठहरा-ठहरा काँप रहा।
कोई ताजमहल हिलता है वक़्त के गहरे घावों में।।
शहर की रोशन गलियाँ अपने साये से बेजार हुईं।
जंगल के सपने ज़िन्दा हैं अब तक चंद अलावों में।।
आग के मंदिर में बिठला कर मोम की मूरत पूज रहा।
आप ‘शलभ’को ढूँढ रहे हैं अब तक दीप-शिखाओं में।।