वातायन -रामधारी सिंह दिनकर
Vatayan -Ramdhari Singh Dinkar
मैं झरोखा हूँ।
कि जिसकी टेक लेकर
विश्व की हर चीज़ बाहर झाँकती है।
पर, नहीं मुझ पर,
झुका है विश्व तो उस ज़िन्दगी पर
जो मुझे छूकर सरकती जा रही है।
जो घटित होता है, यहाँ से दूर है।
जो घटित होता, यहाँ से पास है।
कौन है अज्ञात?
किसको जानता हूँ?
और की क्या बात?
कवि तो अपना भी नहीं है।