चतुराई से मिली जीत
Chaturai Se Mili Jeet
प्राचीन काल में पाटलिपुत्र में वररुचि नाम का एक विद्वान ब्राह्मण युवक रहता था| वह भगवान शिव का परम भक्त था और प्रतिदिन नियमपूर्वक भगवान शिव के मंदिर में जाकर उनकी आराधना किया करता था| वररुचि की मंगनी पाटलिपुत्र की परम सुंदरी उपकोशा के साथ निश्चित हो चुकी थी, लेकिन दोनों का विवाह अभी नहीं हुआ था| उनके विवाह न होने का एक कारण था| विवाह से पूर्व वररुचि अपने आराध्य देव भगवान शिव को प्रसन्न करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहता था|
एक दिन उसने अपनी यह इच्छा अपन मंगेतर उपकोशा के समक्ष कह सुनाई| उसने कहा – उपकोशा! मैं भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए हिमालय पर्वत पर जा रहा हूं| मुझे लौटने में शायद विलंब हो जाए, इसलिए मैंने अपनी धन-संपत्ति हिरण्यगुप्त नामक व्यापारी के पास रखवा दी है| तुम्हें जब भी आवश्यकता पड़े, उससे मांग लेना|
यह सुनकर उपकोशा ने कहा – आर्यपुत्र! मेरी आवश्यकताएं बहुत सीमित हैं| आपके धन की शायद ही मुझे आवश्यकता पड़े, क्योंकि मेरे पास मेरे माता-पिता का दिया हुआ धन भी यथेष्ट है, फिर भी मैं आपकी बात याद रखूंगी और यदि आवश्यकता हुई तो हिरण्यगुप्त व्यापारी के पास जाकर उससे धन मांग लूंगी|
तब फिर ठीक है| अब मैं चलता हूं| अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखना|
जाइए आर्यपुत्र! मैं आपके लौटने तक अधीरता से आपकी प्रतीक्षा करूंगी|
वररुचि हिमालय के लिए चला गया| उपकोशा अपने दैनिक कार्यों में लग गई, लेकिन अपने मंगेतर की याद उसे पल-पल सताती रही|
एक दिन उपकोशा गंगा के स्नान करने के लिए गई| जल में नहाते हुए उसे राजा के एक मंत्री ने देख लिया| उपकोशा का रूप-सौंदर्य देखकर वह उस पर मुग्ध हो गया| उसे पाने की इच्छा उसके मन में जाग्रत हो उठी| उपकोशा जब स्नान करके नदी के जल से निकली तो वह उसके समक्ष जा खड़ा हुआ| एक अजनबी को सामने पाकर उपकोशा लज्जा से दोहरी हो गई| भीगे वस्त्रों में अपना बदन छुपाने का प्रयास करते हुए उसने मंत्री से कहा – कौन हैं आप? क्या आपको मालूम नहीं कि यह घाट महिलाओं के स्नान के लिए बनाया गया है| स्नान करना हो तो कृपया पुरुषों के स्नान करने वाले घाट पर जाइए|
तब वह मंत्री बोला – हे सुंदरी! धृष्टता के लिए क्षमा चाहता हूं| मैं इस राज्य का एक मंत्री हूं| तुम्हारा अप्रतिम सौंदर्य देखकर मैं स्वयं पर काबू न पा सका, इसीलिए यहां चला आया| सुंदरी! मैं तुमसे विवाह करके तुम्हें अपनी जीवनसंगिनी बनाना चाहता हूं| कृपा करके मेरा यह प्रणय-निवेदन स्वीकार कर लो|
यह सुनकर उपकोशा उलझन में पड़ गई| वह बोली – श्रीमंत! मैं आपका यह निवेदन स्वीकार नहीं कर सकती, क्योंकि मेरी मंगनी हो चुकी है|
तो क्या हुआ? मैं यह मंगनी तुड़वा दूंगा| तुम्हारा मंगेतर जितना भी धन चाहेगा, मैं उसे देकर संतुष्ट कर दूंगा| बस तुम स्वीकृति दे दो|
उपकोशा ने उसे अनेक प्रकार से समझाया कि मेरी मंगनी टूट नहीं सकती, क्योंकि वह धर्मानुसार हुई है, लेकिन वह मंत्री अपने आग्रह पर कायम रहा| तब उपकोशा ने उसे टालने का एक उपाय सोचा| वह मंत्री से बोली – श्रीमंत! यदि आपकी ऐसी ही इच्छा है तो मैं इस पर विचार करूंगी, पर इसके लिए मुझे समय चाहिए|
कितना समय चाहिए, सुंदरी? मंत्री ने उत्सुकता से पूछा|
आप अगले सप्ताह बंसत पंचमी के दिन शाम ढले मेरे घर पर आ जाइए| मैं सोचकर आपको अपना उत्तर बता दूंगी, लेकिन याद रहे, बसंत पंचमी से पूर्व मुझसे मिलने की हरगिज भी चेष्टा मत करना, क्योंकि यदि किसी ने खुलेआम हमें मिलते देख लिया तो मेरी तो बदनामी होगी ही, आपकी प्रतिष्ठा पर भि धब्बा लग जाएगा|
मंत्री उसके इस प्रस्ताव पर रजामंद हो गया| वह बोला – हां, यही ठीक रहेगा| बंसत पंचमी का दिन ही हमारे लिए ठीक रहेगा| उस दिन सभी नगरवासी उत्सव मना रहे होंगे| इस कारण तुम्हारे घर में दाखिल होते हुए मुझे कोई देख नहीं सकेगा| यह कहकर मंत्री वहां से चला गया|
‘उफ! पिंड छूटा|’ उपकोशा ने मन में सोचा – ‘तब तक तो मैं इससे छुटकारा पाने की कोई-न-कोई तरकीब सोच ही लूंगी|’
गीले वस्त्र उतारकर उपकोशा ने नए वस्त्र पहने और गीले कपड़ों को एक थैले में डालकर अपने घर की ओर चल पड़ी| तभी सामने से आता हुआ उसे एक मोटा-सा व्यक्ति दिखाई दिया| वह व्यक्ति जब समीप पहुंचा तो उपकोशा उसे पहचान गई| वह राजा का कोषाध्यक्ष था| कोषाध्यक्ष ने जब उपकोशा का रूप-सौंदर्य देखा तो वह ठगा-सा रह गया| वह मन-ही-मन सोचने लगा – ‘अगर यह सुंदर युवती मेरी पत्नी बन जाए तो यह मेरे लिए बहुत सौभाग्य की बात होगी| मेरे सगे-संबंधी, मित्र एवं सहयोगी ऐसी सुंदर युवती को मेरी पत्नी के रूप में देखेंगे तो उन्हें मेरे भगे पर ईर्ष्या होने लगेगी| सभी मेरी सराहना करेंगे कि मुझे विश्व की अद्वितीय सुंदरी पत्नी-रूप में प्राप्त हुई है|’
यही सोचकर उसने जाती हुई उपकोशा को रोका और कहा – सुंदरी! क्या तुम कुछ देर ठहरकर मेरी बात सुनने का कष्ट करोगी?
उपकोशा ने टेढ़ी निगाहों से देखा और पूछा – क्या बात कहना चाहते हैं, श्रीमंत?
सुंदरी! मैं इस राज्य का कोषाध्यक्ष हूं| तुम्हारा रूप देखकर तुमसे विवाह की इच्छा करने लगा हूं| क्या तुम मेरा यह निवेदन स्वीकार करोगी? कोषाध्यक्ष ने कहा|
‘एक और मुसीबत|’ उपकोशा ने सोचा – ‘अब इस मोटू को कैसे टरकाऊं?’
फिर तत्काल ही उसे एक उपाय सूझ गया| वह बोली – श्रीमंत! यहां खड़े-खड़े आपका विवाह करने का यह प्रस्ताव कैसे स्वीकार किया जा सकता है| मुझसे विवाह करना चाहते हो तो मेरे घर पर आइए, वह भी औरों की नजरों में आए बिना, क्योंकि यदि आपको मेरे यहां आते किसी ने देख लिया तो मेरी बदनामी हो जाएगी|
कोषाध्यक्ष का चेहरा खिल उठा| वह खुश होकर बोला – तो कब आऊं तुम्हारे घर? अपने घर का पता भी तो दे दो सुंदरी!
पता मैं बताए देती हूं| आप बसंत-पंचमी के दिन सायंकाल के समय वहां पहुंच जाना|
उपकोशा ने उसे अपने घर पता बताया और तेज-तेज कदम रखती हुई अपने घर की ओर चल पड़ी| उसे डर था कि आगे किसी और ऐसे ही रूप के रसिया से उसका सामना न हो जाए|
उपकोशा की आशंका सही निकली| अभी वह घर पहुंची भी नहीं थी कि रास्ते में उसे नगर कोतवाल मिल गया| उसने भी अपना परिचय देकर उपकोशा के सामने उससे विवाह का प्रस्ताव रख दिया| उपकोशा ने उससे भी अपना पिंड छुड़ाने के लिए अपने घर का पता बताते हुए उसे बसंत पंचमी के दिन सायंकाल में अपने घर जाने को कह दिया|
घर पहुंचकर उपकोशा ने अपनी सहेलियों को बुलाया और मार्ग में घटी घटना के बारे में अक्षरश: कह सुनाया| उसने सहेलियों से कहा – अब मैं यहां नहीं रह सकती| भलाई इसी में है कि मैं यह नगर छोड़कर चली जाऊं|
यह सुनकर उसकी एक सखी ने कहा – उपकोशा! परिस्थितियों से घबराकर पलायन करना उचित नहीं होता| मनुष्य को चाहिए कि वह विषम-से-विषम परिस्थिति का भी दृढ़ता से मुकाबला करे|
तुम स्थिति की भयंकरता का अनुमान नहीं लगा रही हो सखी! इसीलिए ऐसी बात कह रही हो| मुझसे विवाह के इच्छुक वे तीनों व्यक्ति बहुत साधन संपन्न हैं| उनका कहना न मानने पर वे मेरा अनिष्ट कर सकते हैं, इसीलिए मैंने नगर छोड़कर जाने का अप्रिय निर्णय किया है, लेकिन धन की समस्या आड़े आ रही है| दूसरे नगर में जाने के लिए मेरे पास पर्याप्त धन नहीं है| उपकोशा ने कहा|
धन की क्या समस्या है? दूसरी सखी ने कहा – तुम्हीं तो एक दिन कह रही थीं कि वररुचि तुम्हारे लिए हिरण्यगुप्त व्यापारी के यहां पर्याप्त धन जमा कर गए हैं| उसी धन में से कुछ स्वर्णमुद्राएं हिरण्यगुप्त से मांग लो|
‘हां, यही उचित रहेगा|’ ऐसा विचारकर उपकोशा व्यापारी हिरण्यगुप्त के यहां पहुंची और उससे कहा – मैं वररुचि की मंगेतर उपकोशा हूं| मेरे होने वाले पति तुम्हारे पास अपना धन और संपत्ति जमा कर गए थे| मैं उसमें से कुछ धन लेने के लिए आई हूं| कृपया उनके धन में से मुझे कुछ स्वर्णमुद्राएं दे दीजिए|
कैसा धन? मेरे पास किसी का धन नहीं है| मैं तो वररुचि नाम के किसी आदमी को जानता तक नहीं हूं| व्यापारी हिरण्यगुप्त साफ इन्कार कर गया|
आप ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि वररुचि ने मेरे पास कोई लिखित प्रमाण नहीं छोड़ा है| यह अच्छी बात नहीं है श्रीमान! उपकोशा ने तमतमाए स्वर में कहा|
नाराज होने की आवश्यकता नहीं है सुंदरी! हिरण्यगुप्त अपेक्षाकृत नम्र स्वर में बोला – एक शर्त पर मैं तुम्हें धन दे सकता हूं| वह शर्त यह है कि तुम मेरी पत्नी बन जाओ| मेरे पास इतना धन है कि सारी जिंदगी मौज करोगी| मेरे धन की तुलना में वररुचि ने जो धन मेरे पास रखा है, वह तो कुछ भी नहीं है| पापी हिरण्यगुप्त भी उपकोशा पर मोहित हो गया|
यानी आप स्वीकार करते हैं कि वररुचि ने आपके पास धन रखवाया है| उपकोशा ने उसके प्रस्ताव पर कोई ध्यान न देकर उससे पूछा|
हिरण्यगुप्त समझ गया कि उससे गलती हो गई है, उसे वररुचि द्वारा उसके पास रखवाए धन का उल्लेख नहीं करना चाहिए था, अत: उस चालाक व्यापारी ने तुरंत अपनी बात बदल दी| वह बोला – मैंने कब कहा कि वररुचि ने मेरे पास धन रखवाया है? क्या तुम्हारे पास इस बात का कोई साक्षी है, जो यह कह सके कि मेरे पास वररुचि का धन रखा है| हां, मेरा प्रस्ताव यथावत है| यदि तुम मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लो तो तुम्हारे वारे-न्यारे हो जाएंगे|
मुझे थोड़ा-सा समय दो| उपकोशा बोली – तब मैं साक्षी भी हाजिर कर दूंगी|
बेकार ही अपना समय नष्ट करोगी, सुदंरी! चेहरे पर कुटिल मुस्कान लाता हुआ हिरण्यगुप्त बोला – तुम्हें ऐसा कोई साक्षी कभी नहीं मिलगा| हां, मेरे प्रस्ताव पर गौर करने के लिए समय चाहती हो तो और बात है|
उपकोशा ने पल-भर के लिए सोचा, फिर बोली – ठीक है, मैं तुम्हारे प्रस्ताव पर विचार करूंगी, तुम बसंतोत्सव के पश्चात मुझसे मिलकर मेरा उत्तर जान लेना|
व्यापारी हिरण्यगुप्त खुश हो गया| उसे लगा जैसे चिड़िया जाल में फंसने वाली हो| वह कहने लगा – ठीक है सुंदरी! बसंतोत्सव के पश्चात मैं तुमसे मिलने तुम्हारे घर आऊंगा|
जरूर आना,मगर इस बात का विशेष ध्यान रखना कि मेरे घर आते हुए तुम्हें कोई देखे नहीं, अन्यथा बदनामी का डर है|
व्यापारी ने खुशी-खुशी उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया| उपकोशा उससे धन लिए बिना ही अपने घर के लिए रवाना हो गई|
घर पहुंचकर उपकोशा बसंत पंचमी की तैयारी करने लगी| उसने अपनी सखियों से कहा – प्रिय सखियो! जिन-जिन लोगों ने मुझ पर कुदृष्टि डाली है, हमें मिलकर उनको सबक सिखाना है| इसके लिए मैंने एक योजना बनाई है| क्या तुम मेरी योजना में साथ देने के लिए तैयार हो?
हम तैयार हैं| सभी सखियों ने एक स्वर में कहा|
तब एक बड़ा-सा हौज लाओ और उसमें काजल मिला हुआ तेल लाकर भर दो|
उपकोशा की सखियों ने वैसा ही किया| वे एक बड़ा-सा हौज ले आईं और उसमें काजल मिला तेल भर दिया|
अब क्या करें? सखियों ने पूछा|
उपकोशा बोली – अब इस तेल को सुगंधित बनाने के लिए इसमें कस्तूरी और चंदन भी मिला दो|
सखियों ने यह काम भी कर दिया| तब उपकोशा ने उनसे कहा – अब यह काला उबटन बन गया है| बसंतोत्सव के दिन इसमें कपड़े के चार टुकड़े भिगोकर तैयार रखना और जब मैं तुम्हें निर्देश दूं, उन कपड़ों से अपने घर आए विशेष अतिथियों की मालिश करना|
सबने सहमति में सिर हिला दिए| तब उपकोशा ने घर के गोदाम में रखा हुआ अपने पुरखों का एक बहुत बड़ा संदूक खींचकर बाहर निकलवाया और उसे उस कमरे में व्यवस्थित कर दिया, जिसमें काले उबटन से भरा हौज रखा हुआ था| उसने संदूक की सिटकनी और उसमें लगे ताले की भी भली-भांति जांच कर ली, फिर वह निश्चिंतता का अनुभव करते हुए बसंत पंचमी के दिन की प्रतीक्षा करने लगी|
बसंत पंचमी के दिन उपकोशा ने अपनी सखियों को पुन: अपने घर आमंत्रित किया और उन्हें अपनी योजना समझा दी कि उन्हें अतिथियों के पहुंचने पर क्या-क्या करना है|
शाम के समय निर्धारित समय पर सबसे पहले आगमन हुआ मंत्री का| उपकोशा की सखियों ने उसका स्वागत किया| मंत्री ने उनसे पूछा – तुम्हारी गृह-स्वामिनी कहां हैं? मैं उनसे मिलना चाहता हूं|
हां-हां अवश्य मिलिए| उपकोशा की सहेली ने कहा – लेकिन श्रीमान! मालकिन ने हमें आदेश दिया है कि बसंतोत्सव के इस अवसर पर आपको नहलाकर नई पोशाक पहनाई जाए|
उपकोशा की सहेलियों की आवभगत से खुश होकर मंत्री तत्काल राजी हो गया| तब उसे अंदर के कमरे ले जाया गया| उस कमरे में बहुत ही मंद रोशनी थी|
हमने आपके स्नान के लिए एक खास उबटन बनाया है, श्रीमान! दासी बनी उपकोशा की सहेली ने कहा|
मंत्री उबटन से निकलती भीनी-भीनी खुशबू को सूंघकर खुश हो गया| बहुत देर तक उपकोशा की सहेलियां मंत्री के शरीर पर उबटन लगाती रहीं| मंत्री उबटन की गंध का आनंद तो ले रहा था, किंतु इतनी मंद रोशनी में वह कुछ देख पाने में असमर्थ था| अचानक दरवाजे का कुंडा खड़का| दासी बनी उपकोशा की एक सहेली हांफती हुई अंदर दाखिल हुई और बोली – राजा का खजांची आया है सखी! बताओ क्या करूं?
ओफ! दूसरी बोली – वह तो वररुचि का मित्र है| फिर मंत्री की बांह खींचते हुए उसने कहा – आप जल्दी से छिप जाइए श्रीमान! उसने आपको यहां देख लिया तो अनर्थ हो जाएगा|
मंत्री ने घबराकर पूछा – पर मेरे सारे शरीर पर तो उबटन लगा हुआ है| ऐसी हालत में मैं कहां छिपूं?
और कोई सुरक्षित स्थान तो यहां नहीं है| आप इस संदूक में छिप जाइए| उसने जाने के बाद मैं आपको बाहर निकाल दूंगी| दासी बोली और संदूक का ढक्कन उठा दिया| अधनंगा मंत्री जल्दी से संदूक में घुस गया| दासी ने तत्काल ढक्कन की कुंडी लगा दी|
दूसरे कक्ष से उपकोशा बाहर निकली और पूछा – क्या हुआ?
उसकी सहेली ने कहा – मैंने उस मंत्री को संदूक में बंद कर दिया है|
उपकोशा ने राहत की सांस ली, बोली – चलो एक मंत्री से तो पिंड छूटा| देखते हैं, अगली बारी किसकी है?
कुछ ही क्षण बीतते-बीतते राजा का खजांची वहां पहुंच गया| दासियां उसका भी स्वागत-सत्कार कर उसे कम प्रकाश वाले कमरे में ले आईं| उन्होंने खजांची से कहा – श्रीमान! आप अपने राजकीय काम की वजह से थके हुए होंगे| हमारी मालकिन ने आपकी मालिश के लिए यह खास उबटन तैयार कराया है| कृपया पहले स्नान कर लीजिए|
खजांची को कोई संदेह न हुआ| वह फौरन मालिश करवाने के लिए तैयार हो गया| मंद प्रकाश में वह यह न देख सका कि काजल लगे उबटन के कारण वह बिल्कुल भूत बन गया है| हौज में पड़ा-पड़ा वह बड़े इत्मीनान से अपने शरीर की मालिश करवाता रहा| तभी योजनानुसार एक दासी पुन: कमरे में पहुंची और बोली – बाहर नगर कोतवाल आया है| वह उपकोशा से तुरंत मिलना चाहता है| बताओ उसे क्या जवाब दूं?
जवाब क्या देना है| वह नगर का दंडाधिकारी है| यदि उसे प्रतीक्षा करवाई गई तो किसी-न-किसी अपराध में हमें पकड़कर कारागार में भेज देगा| बेहतर यही है कि तुम उसे तुरंत उपकोशा से मिलवा दो|
किंतु उपकोशा के कक्ष में तो उसे इसी कक्ष में गुजरकर जाना होगा| पहली दासी पुन: बोली|
तब तो मैं मारा गया| कहते हुए हड़बड़ाकर खजांची हौज में उठकर बैठ गया – यदि उसने मुझे यहां इस हालत में देख लिया तो मेरी नौकरी तो गई समझो|
चिंता क्यों करते हैं, श्रीमान! दासी बोली – उठिए| मैं आपको एक सुरक्षित स्थान में छिपाए देती हूं|
दासी उसे संदूक के पास ले आई और संदूक का ढक्कन उठाकर बोली – जल्दी से इसमें छिप जाइए|
अब मालिश का आनंद लेने की बारी दंडाधिकारी कोतवाल की थी| योजनानुसार उसके शरीर की भी उसी उबटन से मालिश की गई| फिर राजा के आगमन की झूठी खबर देकर उसे भी भ्रमित कर दिया गया| घबराया हुआ कोतवाल कुछ भी तो न समझ सका| राजा के कोप से बचने का यही एक मात्र तरीका उसकी समझ में आया कि वह संदूक में छिपकर अपनी जान बचाए| दासियों ने उसे भी संदूक में बंद कर बाहर से कुंडी जड़ दी|
मंत्री, कोषाध्यक्ष और कोतवाल से निबटकर उपकोशा ने अपनी सखी से कहा – सखी! अब तुम हिरण्यगुप्त के पास जाकर मेरा यह संदेश पहुंचा दो कि मैं उसके प्रस्ताव का उत्तर देने के लिए तैयार हूं|
उपकोशा की सखी उसका संदेश लेकर व्यापारी हिरण्यगुप्त के पास पहुंची| जैसे ही उसने उपकोशा का संदेश व्यापारी हिरण्यगुप्त को सुनाया| वह उपकोशा से मिलने के लिए आतुर हो उठा और बिना कोई विलंब किए उपकोशा से मिलने के लिए जा पहुंचा| वहां पहुंचकर उसने उपकोशा से कहा – सुंदरी! क्या निर्णय किया तुमने? क्या तुम मेरी पत्नी बनने के लिए तैयार हो?
सोच तो यही रही हूं| उपकोशा बोली – पर क्या आब अब भी इस बात से इन्कार करते हो कि वररुचि ने मुझे देने के लिए आपके पास धन रखवाया था|
हिरण्यगुप्त ने मन में सोचा – ‘यहां मैं कुछ कह भी दूंगा तो उसका साक्षी तो कोई होगा नहीं, अत: सच बता देने में कोई हर्ज नहीं है|’ यह सोचकर उसने कहा – हां सुंदरी! वररुचि ने निस्संदेह मेरे पास अपनी धन-संपत्ति रखवाई थी और कहा था कि तुम्हें जब आश्यकता पड़े, दे दूं|
तब उपकोशा ने हाथ ऊपर करते हुए नाटकीय ढंग से पुकारा – हे गृहदेवताओ! अब तो आप भी इस बात के साक्षी हैं| श्रीमान हिरण्यगुप्त स्वीकार कर रहे हैं कि वररुचि, मेरे मंगेतर ने अपना धन और संपत्ति इनके पास अमानत के रूप में रखवाई हुई है|
यह देखकर हिरण्यगुप्त कुछ सकपका गया| वह उठकर खड़ा हो गया और जाने से पूर्व बोला – सुंदरी! क्या मैं यह समझूं कि तुमने मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया?
थोड़ा धीरज रखिए श्रीमान! उपकोशा बोली – जल्दी ही हम दुबारा मिलेंगे यह मेरा वादा है|
अगले दिन ही उपकोशा सखियों के साथ पाटलिपुत्र के राजा नंद के पास जा पहुंची| वहां उसने राजा से निवेदन किया – हे राजन! हिरण्यगुप्त नाम का एक व्यापारी मुझसे छल कर रहा है| कृपा कर मेरे साथ न्याय कीजिए|
पूरी बात बताओ देवी!’ राजा ने कहा – अधूरी बात जानकर मैं न्याय कैसे कर सकूंगा?
तब उपकोशा ने राजा के समक्ष सारी बातें बता दीं कि किस प्रकार उसके मंगेतर वररुचि ने भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए हिमालय पर जाने से पूर्व हिरण्यगुप्त के यहां अपनी धन-संपत्ति जमा करने की बातें बताई थीं और जब वह आवश्यकता पड़ने पर हिरण्यगुप्त से कुछ धन मांगने के लिए गई तो वह साफ मुकर गया था|
यह सुनकर राजा ने अपने सैनिक भेजकर हिरण्यगुप्त को अपनी राज्य सभा में बुलवा लिया और उससे पूछा – व्यापारी हिरण्यगुप्त! क्या यह सच है कि इस लड़की को देने के लिए वररुचि तुम्हारे पास धन रखवा गया था?
यह सुनकर दुष्ट हिरण्यगुप्त ने अनजान होने का अभिनय किया| वह बोला – नहीं महाराज! यह लड़की सरासर झूठ बोल रही है| मेरे पास वररुचि नाम के किसी आदमी का कोई धन नहीं है|
इस पर उपकोशा ने कहा – हे राजन! मेरे पास साक्षी हैं| जाने से पूर्व वररुचि ने गृह-देवताओं को एक संदूक में रख दिया था| इस व्यापारी ने उनकी उपस्थिति में वररुचि द्वारा धन रख छोड़ने की बात स्वीकार की है| आप स्वयं उन देवताओं से पूछ सकते हैं|
तब राजा ने उपकोशा के घर में रखे उस विशाल संदूक को सभा में लाने की आज्ञा दे दी|
उपकोशा कहने लगी – हे राजन! संदूक बहुत भारी है| थोड़े-से आदमियों को भेजने से काम नहीं चलेगा| उसे लाने के लिए कम-से-कम बीस आदमी चाहिए|
खैर, किसी प्रकार वह भारी संदूक राज-दरबार में लाया गया, फिर राजा के आदेश से जब संदूक को खोला तो उसमें राज्य का एक मंत्री, नगर कोतवाल एवं कोषाध्यक्ष को अर्द्धनग्न हालत में बैठे देखकर राजा सहित सभी सभासद हैरान रह गए| तीनों के शरीर काले थे| ऐसा प्रतीत होता था, जैसे वे काजल की कोठरी में से बाहर निकाले गए हों|
राजा ने हैरत से उपकोशा से पूछा – देवी! यह सब क्या है? मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं|
तब उपकोशा ने राजा से सारी बातें कह सुनाईं| सुनकर राजा उसकी प्रशंसा किए बिना न रह सका| उसके मुख से निकला – बहुत खूब! भई वाह! तुमने तो कमाल कर दिया| तुमने यह साबित कर दिया कि नारी अपनी चतुराई और साहस से हर संकट का सामना कर सकती है| आज से मैं तुम्हें अपनी बहन बनाता हूं| मुझे विश्वास है कि वररुचि तुम्हारे जैसी पत्नी पाकर स्वयं पर गर्व महसूस करेगा|
तब राजा नंद ने अपने मंत्री, दंडाधिकारी एवं कोषाध्यक्ष को तत्काल बर्खास्त कर दिया| उसने उपकोशा को ढेरों उपहार दिए| सारे उपहारों को एक छकड़े में लदवाकर जब उपकोशा अपने नगर में लौटी तो पाटलिपुत्र के नागरिकों ने उसका भरपूर स्वागत किया और उसे फूल-मालाओं से लाद दिया|